बढ़ता शहरीकरण: प्रकृति से बढ़ती दूरी !
आज दुनिया तेज़ी से शहरीकरण की ओर बढ़ रही है. गाँव शहर बन रहे हैं और शहर महानगर. यह विकास का एक अनिवार्य हिस्सा है, लेकिन इस विकास की कीमत क्या है? हम एक ऐसी दुनिया बना रहे हैं जो आधुनिक सुख-सुविधाओं से तो भरी है, लेकिन प्रकृति और पर्यावरण से दूर होती जा रही है.
जिस तरह से हमारे शहर बढ़ रहे हैं, हरियाली का दायरा सिकुड़ रहा है और कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं. इसका सीधा असर हमारे पर्यावरण पर पड़ रहा है. बिगड़ता पर्यावरणीय संतुलन, जलवायु परिवर्तन, और मौसम के चक्र में आ रहे बदलाव के कारण पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं की कई प्रजातियों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.
पर्यावरण का संबंध मानव जीवन से अटूट है. हम सब प्रकृति के ही अंग हैं. अगर प्रकृति स्वस्थ नहीं रहेगी, तो हम भी स्वस्थ नहीं रह सकते. ऐसा लगता है कि विकास की अंधी दौड़ में हमने पर्यावरण को हाशिये पर धकेल दिया है, जबकि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं.
हमें यह समझना होगा कि सतत विकास का मतलब केवल आर्थिक प्रगति नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा विकास है जो हमारी प्रकृति और भावी पीढ़ियों का भी ध्यान रखे. हमें ऐसे शहर बनाने होंगे जहाँ हरियाली और कंक्रीट, दोनों साथ-साथ बढ़ें. जहाँ हम विकास करें, लेकिन अपनी जड़ों को न भूलें.
यह समय है कि हम सब मिलकर प्रकृति को बचाने के लिए कदम उठाएं. यह सिर्फ सरकारों या पर्यावरणविदों का काम नहीं है, बल्कि हम सभी की जिम्मेदारी है. आइए, एक ऐसा भविष्य बनाएँ जहाँ हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकें और एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकें.

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