"इंजीनियर की पत्नी रात भर नोटों को जलाती रही।"- प्रसिद्ध यादव।

     


​धन का दीपक, भ्रष्टाचार की बाती और कबीर की वाणी !

दानव का हुलिया अब स्मार्ट हो गया है, उसे मेरी नजरों से देखें।

​कबीर कहते हैं, "माटी कहैं कुम्हार सों, तू क्या रौंदै मोय। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय।" पर आज के ज़माने में माटी की भी हैसियत बदल गई है। अब माटी नहीं, नोट बोलते हैं। एक इंजीनियर साहब थे, जिन्होंने जनसेवा का पद पाया था, पर मन में सिर्फ 'लूट-सेवा' ही भरी थी। गिट्टी, बालू, अलकतरा सब डकार गए, पर कहते हैं न, पाप का घड़ा एक दिन भरता है, और जब भरता है तो फूटता भी है।

​आजकल यही हुआ। जब भ्रष्ट कर्मों की जांच की आंच उन तक पहुंची, तो उनकी पत्नी ने अपनी कमाई हुई दौलत को जलाना शुरू कर दिया। रात भर नोटों की होली खेली। घर के शौचालय और बाथरूम के पाइप नोटों की राख से ऐसे जाम हो गए, मानो खुद पाप की गंदगी भी रास्ता खोज रही हो। कबीर ने कहा था, "कबीरा यह तन जात है, सकै तो लेइ बहोरि। नातरि हाथ मलोगा, जैसे बालक छोरि।" पर यहां तो शरीर के साथ-साथ आत्मा भी गल गई, और अंत में सिर्फ राख बची।

​यह कैसा जीवन है? यह कैसी इंजीनियरिंग की पढ़ाई है? जिसने इतना पैसा कमाया कि उसे जलाना पड़ गया, पर वह पैसा न तो शरीर को स्वस्थ रख सका, न ही मन को शांति दे सका। साहब खुद किडनी ट्रांसप्लांट करा रहे हैं और उनकी पत्नी भी बीमार हैं। पद मिला था जनसेवा का, पर किया सिर्फ खुद का पेट भरा। कबीर कहते थे, "कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।" लेकिन आजकल तो बाज़ार में सिर्फ लूट की होड़ है।

​आजकल समाज में कई ऐसे समाजसेवी और जनसेवक हैं, जो कल तक ईडी और सीबीआई के रडार पर थे, पर आज सत्ता की छांव में बैठ कर ईमानदार होने का ढोंग कर रहे हैं। वे भूल गए हैं कि "माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर। आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर।" यह लालच का खेल, यह भ्रष्टाचार का दलदल, कब तक चलेगा? आखिर में, इंसान केवल एक खाली हाथ और जली हुई राख के अलावा कुछ नहीं छोड़ता।

​यह घटना हमें याद दिलाती है कि ईमानदारी और नैतिकता की कीमत हर नोट से कहीं ज्यादा होती है।

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