सहायता या सियासत: बिहार में कल्याणकारी योजनाएँ और शिक्षा की उपेक्षा!


   

बिहार सरकार के लिए  उच्च शिक्षा प्राथमिकता नहीं है। 

बिहार में हाल ही में घोषित 'मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना' के तहत 75 लाख महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपए भेजने का निर्णय राज्य की महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ा कदम बताया जा रहा है। निश्चित रूप से, यह पहल उन परिवारों के लिए एक राहत हो सकती है जो आजीविका और रोज़गार के संघर्ष से जूझ रहे हैं। लेकिन, इस घोषणा का समय और संदर्भ इसकी मंशा पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है। विधानसभा चुनाव नज़दीक आने के साथ ही, यह घोषणा महज़ एक 'कल्याणकारी उपाय' है या सत्ता में वापसी के लिए बुना गया एक 'राजनीतिक ताना-बाना'?

'रेवड़ी' संस्कृति और चुनावी लाभ

इस योजना को सीधे तौर पर 'कमज़ोर तबके' को रोज़ी-रोटी की उम्मीद दिलाने का प्रयास माना जा सकता है। सवाल यह है कि 10,000 रुपए की राशि इन गरीब परिवारों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है और इसे वे किस रूप में देखते हैं? यह सहायता राशि वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुंचेगी या नहीं, इसके लिए क्या कसौटियाँ तय की गई हैं? इन सवालों से अधिक महत्वपूर्ण सवाल है—बिहार सरकार को ठीक चुनावी माहौल से पहले ही महिलाओं की सहायता की सुध क्यों आई, जबकि अभाव के हालात तो काफी पुराने हैं?

भारतीय राजनीति में यह प्रवृत्ति तेज़ी से मज़बूत हुई है, जहाँ राजनीतिक दल चुनावों से ठीक पहले मुफ्त उपहारों (जिसे आम भाषा में 'रेवड़ी' कहा जाता है) की घोषणा कर आम लोगों के एक बड़े वर्ग को अपनी ओर खींचने का प्रयास करते हैं। सत्तारूढ़ दल इसे 'लोक कल्याण' के नाम पर आगे बढ़ाते हैं, लेकिन यह रणनीति देश की लोकतंत्र की जीवन-मानी जाने वाली मतदान-प्रणाली को मुफ्त के आकर्षण से प्रभावित करने की एक लगातार बढ़ती हुई कोशिश है। सुप्रीम कोर्ट भी इस चलन पर नैतिकता और औचित्य के सवाल उठा चुका है, क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था और जनकल्याण की वास्तविक प्राथमिकताओं पर नकारात्मक असर पड़ता है।

शिक्षा की उपेक्षा: एक गंभीर विरोधाभास

एक तरफ जहाँ सरकार 75 लाख महिलाओं के खाते में 10-10 हज़ार रुपए भेजकर 'सशक्तिकरण' का दावा कर रही है, वहीं दूसरी तरफ राज्य का शिक्षा क्षेत्र गहरे संकट में है। यह एक गंभीर विरोधाभास है।

बिहार में, सम्बद्ध डिग्री कॉलेज और इंटर कॉलेज के शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारी लंबे समय से अनुदान के बदले वेतनमान की मांग कर रहे हैं। इन कर्मियों के लिए यह मांग उनके सम्मानजनक जीवन और भविष्य से जुड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संबंध में आदेश दिया है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार सरकार के लिए यह प्राथमिकता नहीं है। शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले इन शिक्षण संस्थानों के कर्मचारियों की उपेक्षा स्पष्ट करती है कि सरकार की प्राथमिकता तत्कालिक चुनावी लाभ है, न कि राज्य के मानव संसाधन को मज़बूत करने वाला दीर्घकालिक निवेश।


'मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना' यदि शुद्ध रूप से महिला सशक्तिकरण और गरीबी उन्मूलन के उद्देश्य से चलाई जाती है, तो यह स्वागत योग्य है। लेकिन, इसे ठीक चुनाव से पहले लागू करना और साथ ही शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र की निरंतर उपेक्षा करना, इस पहल को महज़ एक चुनावी रणनीति बना देता है। रेवड़ी संस्कृति के माध्यम से सत्ता में वापसी का सपना देखने वाली सरकार को यह समझना होगा कि 'मुफ्त' की घोषणाएँ स्थायी समाधान नहीं हैं। राज्य की जनता को रोज़ी-रोटी के लिए 10,000 रुपए की भीख नहीं, बल्कि बेहतर वेतनमान वाली स्थायी नौकरियाँ, एक मज़बूत शिक्षा प्रणाली, और बुनियादी ढांचे की ज़रूरत है। शिक्षा में निवेश ही किसी भी राज्य को गरीबी और अभाव के चक्र से बाहर निकालने का एकमात्र सशक्त उपाय है। वर्तमान हालात में, बिहार सरकार सत्ता में वापसी के अपने हसीन सपने को साकार कर पाएगी, यह मुश्किल ही जान पड़ता है।

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