जनसेवा का धर्म और एक-एक वोट का महात्म्य !प्रो प्रसिद्ध कुमार



​जय तेजस्वी! तय तेजस्वी! 

​यह अकाट्य सत्य है कि लोकतंत्र के यज्ञ में एक-एक वोट और एक-एक सीट का अपना अलौकिक महत्व है। राजनीति केवल अंकगणित नहीं, यह राष्ट्र के भविष्य की आधारशिला है। किसी भी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता और नेतृत्व का यह परम धर्म है कि वे अपने दल और गठबंधन के प्रति पूर्ण निष्ठा और वफ़ादारी रखें।

​व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति हेतु, 'आज यहाँ और कल वहाँ' की अस्थिर नीति राजनीति की मूल आत्मा का हनन करती है। बेशक, यह संभव है कि स्थानीय स्तर पर किसी कर्मठ कार्यकर्ता या नेता को उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा हो; इन छोटी-मोटी कटुताओं को संवाद की मेज पर बैठकर दूर किया जा सकता है। वसीम बरेलवी ने ठीक ही कहा है:

​"वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीक़े से, मैं ए'तिबार न करता तो और क्या करता।"

​किंतु, क्षणिक मनमुटाव या तल्खी से भला क्या हासिल होगा? याद रखें, एकता ही बल है। यह सिद्धांत जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है। आपसी फूट का अर्थ है – स्वयं को निर्बल करना।

​📜 सिद्धांतों की तपस्या और चरित्र की पूंजी

​कोई भी महान दल नीतियों और सिद्धांतों के रथ पर आरूढ़ होकर ही आगे बढ़ता है। यह स्वीकार करना होगा कि किसी भी व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की समस्त अपेक्षाएँ और आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकतीं। क्या यह बुद्धिमत्ता है कि छोटी-छोटी बातों के लिए एक विराट मिशन की बलि चढ़ा दी जाए?

​राजनीति वर्तमान की नहीं, यह आगामी पीढ़ियों के उज्जवल भविष्य को संवारने का कार्य है; यह स्वयं के चरित्र और सिद्धांतों को अक्षुण्ण बनाए रखने का संकल्प है।

​हमें बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर के उस अभूतपूर्व संघर्ष को स्मरण करना चाहिए, जिसने अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के लिए संविधान में अधिकार सुरक्षित किए। यह विडंबना ही है कि जिन्होंने इस प्रावधान का लाभ लिया, उन्हीं में से कुछ आज उन मूल नीतियों के विरुद्ध खड़े हैं!

​राजनीति केवल सत्ता-सुख भोगने का माध्यम नहीं है। यह एक तपस्या है, जनसेवा है, स्वाभिमान है, और नैतिक वसूलों का पालन है। जहाँ ये तत्व अनुपस्थित हैं, वहाँ सच्ची राजनीति का कोई स्थान नहीं।

​🇮🇳 भगत सिंह का बलिदान और आज का यथार्थ

​याद कीजिए वीर भगत सिंह को, जिन्होंने देशप्रेम की वेदी पर फांसी के फंदे को सहर्ष चूम लिया। क्या हमारा आज का संघर्ष, उनके बलिदान से अधिक कष्टदायक है?

​स्मरण कीजिए 1990 से पूर्व के राजनीतिक परिदृश्य को—कितने जनप्रतिनिधि निःस्वार्थ भाव से गरीबों के द्वार पर जाते थे? जब लालू यादव जैसे जन-मसीहा उभरे, तो राजनीति का संपूर्ण पैटर्न ही परिवर्तित हो गया। तब राजनेता से लेकर नौकरशाह तक, स्वयं को जनता का सेवक मानते थे।

​परंतु आज क्या हो गया है? एक सामान्य म्यूटेशन (नामांतरण) या FIR भी क्या बिना धन के लेनदेन के संभव है? अपवाद स्वरूप कुछ लोग हो सकते हैं, पर समग्रता में आज पैसा ही बोल रहा है।

​जागरूक रहिए! यह परिवर्तन का अवसर हमें पाँच वर्षों में केवल एक बार मिलता है। इस अवसर को चूकना, स्वयं अपनी आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय करना है।


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