जनोपयोगी राजनीति का अभाव: लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चुनौती !-प्रो प्रसिद्ध कुमार।
जो करे बार -बार जनमत का अपमान , पुनःउसे जनादेश की क्यों दरकार ?
आज भारतीय राजनीति जिस चौराहे पर खड़ी है, वहाँ से जनसेवा का मार्ग धुँधला होता जा रहा है। एक समय था जब राजनीति को त्याग, सिद्धांत और लोक-कल्याण का पर्याय माना जाता था, लेकिन मौजूदा दौर में यह सत्ताभोग और सुविधाभोगी प्रवृत्तियों का शिकार हो चुकी है।
सत्ता का आकर्षण और सिद्धांतहीनता
सत्य है कि नीतिविहीन राजनीति एक मृत शरीर के समान है। यह क्षणिक लाभ तो दे सकती है, परंतु इसे न तो लंबी पारी मिल सकती है और न ही जनता के बीच प्रतिष्ठा। राजनीति का मूल आधार जनता की सेवा होना चाहिए, न कि निजी स्वार्थों की पूर्ति।
दल-बदल की प्रवृत्ति इसी सिद्धांतहीनता का सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि एक या दो बार दल बदलना वैचारिक मतभेद या उपेक्षा का परिणाम हो सकता है, तो बार-बार और अवसर देखकर पाला बदलना स्पष्ट रूप से सत्ता और सुविधा का लालच दर्शाता है। यह प्रवृत्ति न केवल उस विशेष नेता की व्यक्तिगत साख को गिराती है, बल्कि जनमत का भी अपमान करती है, जिसने उसे किसी विशेष विचारधारा के आधार पर वोट दिया था।
टिकट खरीद-बिक्री: लोकतंत्र का पतन
सबसे चिंताजनक स्थिति वह है जहाँ टिकट 'चिरोरी' से नहीं, बल्कि 'नोटों के बंडलों' से खरीदे जा रहे हैं। यदि किसी को उम्मीदवार बनने के लिए अपने नीति और सिद्धांतों को ताक पर रखकर पैसा खर्च करना पड़े, तो वह जनता की सेवा के लिए क्यों आएगा?
पहले टिकट के लिए निवेश, फिर मतदाताओं को 'खरीदने' का प्रयास, और अंततः सत्ता में आकर केवल अपने 'निवेश' की भरपाई करना।
इस प्रक्रिया से चुना गया प्रतिनिधि जनता के प्रति नहीं, बल्कि अपनी तिजोरी और पार्टी के आकाओं के प्रति जवाबदेह होता है। यही कारण है कि ऐसे माननीय अक्सर जनता का काम करने से कतराते हैं और उन्हें अपमानित भी करते हैं। यह स्थिति स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।
कुर्सी की मोह-माया और शारीरिक अक्षमता
कुछ ऐसे नेता अब भी कुर्सी के लिए बेचैन हैं, जिनका शरीर और दिमाग अब पूरी तरह से साथ नहीं दे रहा है। राजनीति एक अत्यधिक सक्रिय और उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य है, जिसके लिए शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम होना आवश्यक है।
बार-बार वही लाचार चेहरे देखते रहने से चुनावी प्रक्रिया का मजाक बनता है, और कई बार तो इन अपरिहार्य स्थितियों के कारण मध्यावधि चुनाव की नौबत भी आ जाती है, जिससे राजकोष और जनता का समय दोनों बर्बाद होता है।
सुधार की दिशा: गाँधी के सिद्धांत आज भी प्रासंगिक
महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि "बिना सिद्धांत के राजनीति" का कोई मोल नहीं है। हमें अपनी राजनीति को पुनर्जीवित करने के लिए इन सिद्धांतों की ओर लौटना होगा:
टिकट वितरण में पारदर्शिता: राजनीतिक दलों को चरित्र, समर्पण और जन-कार्य को टिकट का आधार बनाना चाहिए, न कि धन-बल को।
कार्यकाल सीमा और स्वास्थ्य मानक: वरिष्ठ पदों के लिए एक उम्र सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। साथ ही, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी एक मापदंड बनाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रतिनिधि अपना दायित्व पूर्ण क्षमता से निभा सके।
जन-जवाबदेही: प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए सख्त आचार संहिता लागू हो। दल-बदल पर कड़े कानूनी प्रतिबंध लगें, जो सत्ता के लोभ में किए गए हों।
राजनीति सत्ता भोग का मार्ग नहीं, बल्कि जन-कल्याण का पवित्र यज्ञ है। जब तक हम इस यज्ञ की शुचिता को वापस नहीं लाते, तब तक हमारा लोकतंत्र सशक्त नहीं हो सकता। हमें नेताओं से यह अपेक्षा रखनी चाहिए कि उनकी राजनीति स्वार्थी नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में जनोपयोगी हो।

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