मन मंदिर: जहाँ आत्मा का वास है !-प्रो प्रसिद्ध कुमार।
आंतरिक स्वच्छता ही जीवन का सर्वोत्तम श्रृंगार है
हम सभी अपने घर, अपने आस-पास की दुनिया को स्वच्छ और सुंदर रखना चाहते हैं, पर क्या कभी हमने अपने मन की ओर झाँका है? संत कबीर ने ठीक ही कहा था, "मन चंगा तो कठौती में गंगा।" यह सत्य है कि हमारा मन भी एक पवित्र मंदिर के समान होता है—एक ऐसा देवस्थान जहाँ स्वयं आत्मा निवास करती है। इस मंदिर को भी भौतिक मंदिरों की भांति ही साफ-सुथरा, निर्मल और सुवासित रखना परम आवश्यक है।
एक भौतिक मंदिर में हम ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि श्रद्धा और विश्वास की स्थापना करते हैं। उसी प्रकार, हमारे मन रूपी मंदिर में भी कुछ अमूल्य वस्तुएँ स्थापित करने योग्य होती हैं, जिनका मूल्य संसार के किसी भी खज़ाने से कहीं अधिक है।
मन-मंदिर के दिव्य आभूषण
मन रूपी इस अनमोल देवालय को सजाने के लिए हमें सद्गुणों के दिव्य आभूषणों की आवश्यकता होती है। ये आभूषण ही हमारे आंतरिक सौंदर्य और व्यक्तित्व की आभा को बढ़ाते हैं:
अच्छाई और सच्चाई: ये मन की नींव हैं। जिस तरह एक मंदिर सत्य की बुनियाद पर टिका होता है, उसी तरह हमारे विचार और कर्म भी अच्छाई की रोशनी से जगमगाने चाहिए।
करुणा और दया: ये मन के शीतल जल के समान हैं। जब मन में करुणा का वास होता है, तो वह दूसरों के दुख को अपना मानकर उनके प्रति दया का भाव रखता है।
प्रेम और क्षमा: ये मंदिर की सबसे प्यारी सुगंध हैं। प्रेम हमें दूसरों से जोड़ता है, और क्षमा हमारे मन से क्रोध, घृणा और प्रतिशोध के विषैले तत्वों को बाहर निकालकर उसे निर्मल करती है।
निर्मलता (पवित्रता): यह इन सभी गुणों का सार है। मन की निर्मलता ही हमें ईर्ष्या, द्वेष और लोभ जैसे विकारों से मुक्त रखती है।
सम्मान का सच्चा मार्ग
जो व्यक्ति इन अमूल्य वस्तुओं—सच्चाई, करुणा, प्रेम और क्षमा—को अपने हृदय में संभालकर रखता है, वह केवल स्वयं को ही नहीं, बल्कि पूरे संसार को प्रकाशित करता है। ऐसे लोग दिखावे से दूर रहकर भी समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाते हैं।
बाहरी संपदा क्षणभंगुर होती है, परंतु आंतरिक पवित्रता और सद्गुणों की पूंजी अमर होती है। जो लोग मन की इस निर्मलता को जीते हैं, उनका सम्मान लोग किसी पद या धन के कारण नहीं, बल्कि उनके पवित्र और उज्जवल हृदय के कारण करते हैं। उनका आचरण ही उनका परिचय होता है, और उनकी सादगी ही उनकी सबसे बड़ी महानता।

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