माँ: मानवता की आद्य-सृजक ! - प्रो प्रसिद्ध कुमार।


   

​जीवन के इस विराट रंगमंच पर, जहाँ हर प्राणी एक भूमिका निभाता है, वहाँ मनुष्य होने का गौरव हमारी माताएँ ही प्रदान करती हैं। यह मात्र एक जैविक सत्य नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक नींव है कि हमें बुनियादी तौर पर 'मनुष्य' बनाने में हमारी जननियों का ही महत्तर योगदान रहा है।

​देखा जाए तो, केवल मनुष्य रूप में जन्म लेना मनुष्यता का प्रमाण नहीं है। यह तो प्रकृति का एक विधान है। असली चुनौती तो उस नश्वर देह में एक उदात्त, संवेदनशील और सुसंस्कृत आत्मा का संचार करना है। हमें मनुष्य होने के नाते, अपने व्यक्तित्व के अंतरंग में उन दिव्य गुणों को समाहित करना पड़ता है जो हमें पशुता से ऊपर उठाकर देवत्व के समीप ले जाते हैं।

​और इस गहन, अलौकिक प्रक्रिया की अधिष्ठात्री केवल माँ है। वह शिल्पकार है जो हमें कच्ची मिट्टी से तराशकर एक कलाकृति का रूप देती है। माँ ही वह प्रथम गुरु है जो अपने विचारों की शुद्धता से हमारे मानस को सींचती है; अपने संस्कारों की अनमोल धरोहर से हमारी आत्मा को समृद्ध करती है; और अपने मौन, किंतु दृढ़ अनुशासन की सीख से हमारे जीवन को एक सही दिशा और उद्देश्य देती है।

​माँ केवल जन्म नहीं देती, वह हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। वह हमें प्रेम, करुणा, धैर्य और सत्य के उस पावन मार्ग पर चलना सिखाती है, जिस पर चलकर हम सही अर्थों में मनुष्य कहलाने के अधिकारी बनते हैं। माँ का आँचल ही वह प्रथम पाठशाला है जहाँ मानवता की पहली गाथा लिखी जाती है। उनका त्याग और समर्पण ही वह अदृश्य धागा है जो हमें समाज और संस्कृति से बाँधता है। माँ है, तभी हम हैं - मानवीय गुणों से परिपूर्ण, संवेदनशील और सभ्य।


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