'संख्या बल' का भ्रम: क्या कायस्थों की उपेक्षा भाजपा को पड़ेगी भारी?- डॉ. दीपेंद्र भूषण के वार्ता पर आधारित।
कुम्हरार सीट पर कायस्थ को बेटिकट करना - सिर्फ एक टिकट का सवाल नहीं, राजनीतिक अस्तित्व की चुनौती।
पटना की कुम्हरार विधानसभा सीट पर निवर्तमान कायस्थ विधायक का टिकट काटकर वैश्य समाज के उम्मीदवार को देना भाजपा की एक ऐसी राजनीतिक चाल है, जिसे पूर्व अधिकारी डॉ. दीपेंद्र भूषण ने पार्टी के लिए 'महंगा' पड़ने वाली चेतावनी के रूप में पेश किया है। यह कदम केवल एक स्थानीय सीट के टिकट वितरण का मामला नहीं है, बल्कि यह उस कायस्थ समाज की उपेक्षा का प्रमाण है, जिसका भारतीय राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में एक गौरवशाली इतिहास रहा है।
अतीत का गौरवशाली स्मरण और राजनीतिक गणित
डॉ. भूषण अपने वक्तव्य में कायस्थ समाज की 'बुद्धि सम्पदा' और ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करते हैं। उनका तर्क है कि जब तक यह समाज कांग्रेस के साथ रहा, कांग्रेस सत्ता में रही; और जब कायस्थों ने भाजपा का रुख किया, तो भाजपा सत्तासीन हुई। यह दावा राजनीतिक दलों के लिए एक गंभीर विचारणीय बिंदु है।
कायस्थ समाज ने देश को डॉ. राजेंद्र प्रसाद (प्रथम राष्ट्रपति), बिहार निर्माता सच्चिदानंद सिन्हा, 'तुम मुझे खून दो, मैं तुझे आज़ादी दूंगा' का नारा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस, 'करो या मरो' का नारा देने वाले, संपूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण और 'जय जवान, जय किसान' का नारा देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जैसे दिग्गज दिए हैं। स्वतंत्रता संग्राम में खुदीराम बोस का बलिदान भी इसी समाज से जुड़ा है। यह अतीत बताता है कि कायस्थ समाज संख्या में भले ही कम हो, लेकिन उसकी गुणात्मक उपस्थिति, वैचारिक नेतृत्व और संगठनात्मक क्षमता अत्यंत प्रभावशाली रही है।
कुम्हरार: संख्यात्मक शक्ति की उपेक्षा
कुम्हरार जैसी कायस्थ-बहुल सीट पर निवर्तमान विधायक अरुण सिन्हा (जो 2010 से लगातार विधायक रहे और 2020 में भी जीते) का टिकट काटना, और उस स्थान पर गैर-कायस्थ उम्मीदवार को लाना, राजनीतिक रूप से जोखिम भरा निर्णय माना जा रहा है। डॉ. भूषण के अनुसार, कुम्हरार में कायस्थ मतदाताओं की निर्णायक संख्या लगभग सवा लाख है। इसके अलावा, मोतिहारी, गया और भागलपुर जैसे जिलों में भी यह समाज निर्णायक भूमिका में है।
यह सीधा संकेत देता है कि राजनीतिक दल, संभवतः भाजपा, कायस्थ समाज को अपना 'मजबूरन सपोर्टर' समझने की गलती कर रहे हैं। यदि पार्टी कायस्थों को केवल संख्यात्मक दृष्टिकोण से कमतर आंकती है, तो यह 'गुणात्मक दृष्टिकोण' की अनदेखी है। यह वही गलती हो सकती है, जिसकी ओर डॉ. भूषण 'अस्तित्व विहिन' होने की चेतावनी देते हैं।
जंगलराज का डर दिखा कर कायस्थ का वोट लेना सरासर वेईमानी है । जंगलराज से मुक्ति की जिम्मेवारी सिर्फ कायस्थों की नहीं है । जंगल राज से मुक्ति का ठेकेदार अकेले कायस्थ क्यों ?
राजनीति का कड़ा संदेश
यह पूरा घटनाक्रम भारतीय राजनीति के लिए एक कड़ा संदेश देता है: "अगर कोई समाज अपनी आवाज़ खो देगा, तो राजनीति उसे भूल जाएगी।"
यह समाज, जो जंगल के शेर की तरह संख्या में कम लेकिन नेतृत्व और प्रभाव में राजा की तरह रहा है, यदि उपेक्षा से जाग गया, तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। किसी भी राजनीतिक दल के लिए, खासकर भाजपा के लिए, जो एक मजबूत सामाजिक आधार पर टिकी है, कायस्थ जैसे बुद्धिजीवी और प्रभावशाली वर्ग की अनदेखी करना एक बड़ी रणनीतिगत चूक साबित हो सकती है। टिकट काटने का यह निर्णय न सिर्फ कुम्हरार सीट के परिणाम को प्रभावित कर सकता है, बल्कि बिहार के अन्य कायस्थ बहुल क्षेत्रों में भी इसका 'डोमिनो इफ़ेक्ट' देखने को मिल सकता है।

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