सिंहासन की हवस: जब 'सेवा' का जुनून 'टिकट' के लिए चीत्कार बन जाता है! -प्रो प्रसिद्ध कुमार।

   



चुनाव का मौसम नहीं, यह तो टिकट-मंथन का काल है! और इस मंथन से जो विष निकलता है, उसे 'जनसेवा' का नाम दिया जाता है। अहा! क्या दृश्य है! एक ओर सियासी संत हैं, जिनके मुखमंडल पर त्याग और तपस्या का दिव्य तेज है—लेकिन यह तेज तब तक ही है जब तक कि टिकट की पर्ची उनके हाथ में न आ जाए।

पार्टी कार्यालय के बाहर का मंजर देखिए: यह कोई अखाड़ा नहीं, बल्कि विधवा विलाप का मंच है! जनसेवा का भूत जब मेवा खाने की तीव्र लालसा से टकराता है, तो ऐसे ही हृदय-विदारक नज़ारे जन्म लेते हैं। एक 'जनसेवक' टिकट न मिलने पर धरने पर क्या बैठा है, मानो उसके पुरखों की सात पुश्तों की विरासत छीन ली गई हो!

 ढोंगियों के कुछ उद्धरण देखें -

"मैंने इस दल के लिए अपनी बीवी के गहने बेच दिए!"

"दस साल से दरी बिछाई है, अब क्या गधे को टिकट दोगे?"

"बिना टिकट तो मैं कंगाल होकर सड़क पर आ जाऊँगा—ये तो मेरी अंतिम उम्मीद थी!"

कोई गधे की तरह लोट-पोट हो रहा है, अपने ब्रांडेड कुर्ते को फाड़कर गरीबी और त्याग का कृत्रिम नाटक रच रहा है। कोई अनर्गल प्रलाप कर रहा है, "लूटने और लुटाने" की कसमें खा रहा है, मानो पार्टी को अपनी जायदाद समझ बैठा हो। यह जनसेवा नहीं, यह तो शॉर्टकट में सिंहासन पाने की गजब की भूख है!

जिसने दस या बीस सालों की वफादारी का हिसाब दिया, वह सोचता है कि उसने जनता की नहीं, दल की सेवा की है, इसलिए अब 'मेवा' उसका पुश्तैनी हक है। इनका त्याग ऐसा है, जैसे अंडकोष में मोतियाबिंद—असंभव और हास्यास्पद!

भ्रम की बाज़ी और रणभूमि की सच्चाई 

और उधर, जिन्हें टिकट रूपी वरदान मिल चुका है, वे सातवें आसमान पर हैं। वे खुशफहमी के ऐसे बुर्ज में बैठे हैं जहाँ से उन्हें कोई चुनौती नज़र नहीं आती। वे मान बैठे हैं कि मुकाबला तो है ही नहीं, बस विजय-तिलक लगाना बाकी है।

मगर मेरे प्यारे राजसी-उम्मीदवारों, सत्य बड़ा निर्मम होता है। चुनाव की रणभूमि कोई गुलाबी गालों वाली प्रेमिका नहीं, जो सिर्फ आपके पुराने प्रेमपत्रों से मान जाएगी। यहाँ रोड मैप चाहिए, रणनीति चाहिए, और हाँ—वह जनसंपर्क चाहिए, जो सिर्फ वोटिंग मशीन तक हाथ मिलाने तक सीमित न हो।

क्योंकि इस खेल का नियम सीधा है: जब तक जनता जनार्दन के बीच सघन संपर्क न हो, तब तक आपकी जीती हुई बाज़ी भी हार के दलदल में बदल सकती है। नेताजी, कुर्सी तक पहुँचने की यह अंधी दौड़ सिर्फ टिकट मिलने से खत्म नहीं होती; यह तो असल परीक्षा का श्रीगणेश है।

अतः, यह विलाप, चीत्कार, और अनर्गल प्रलाप सिर्फ एक ही चीज़ सिद्ध करता है: जनसेवा का ढोंग जितना बड़ा है, सत्ता की लालसा उससे कहीं ज़्यादा बड़ी है। धन्य हो यह लोकतंत्र, जहाँ रोने-धोने से भी 'सेवा' का द्वार खुलता है!

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