सिंहासन का सौदागर ! ( कविता )- प्रो प्रसिद्ध कुमार।
क्यों बदलता तू बारंबार निज पाला?
क्या ज़मीर तेरा ही शीत से गल गया?
या राजसिंहासन को ही पाले ने मारा?
सत्ता की तृष्णा में यह कैसा बदलाव मिला!
बनने चला था नायक तू राष्ट्र की खातिर,
समय ने पर, तमाशाई, जोकर बना छोड़ा।
हमने देखे तेरे सुर बदलते पल-पल,
देखा बदला चाल, बदला वाणी का पारा।
कुर्सी के मोह में, तू बन गया घनचक्कर,
गिरगिट से भी तेज़, रंग बदलते देखा!
बस! अब और नहीं! जनता ने हक़ीक़त जानी,
तेरी कपटी फ़ितरत का मर्म पहचान लिया।
अब शेष है केवल मुख की हार तुम्हें,
होना पड़ेगा अब जन-सैलाब के आगे पानी-पानी।
बहुत हो चुका यह मसल और मनी का खेल,
अब हर षड्यंत्र पर लगेगा कठोर ताला!
क्यों बदलता तू बारंबार निज पाला?
न कहीं निष्ठा बची, न कोई नीति है तेरी।
न चित्त में सुंदरता, न चरित्र में बल,
न कोई हित तेरा, न कोई मीत है सच्चा।
केवल स्वार्थ है, सम्पदा के लिए यह अर्थ,
बाकी सब जग में तेरे लिए है व्यर्थ!

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