​संघर्ष की पगडंडियाँ: एक कार्यकर्ता की निस्पृह गाथा !- प्रो प्रसिद्ध कुमार।

   


​'गांवों की पगडंडियों से चलकर मैं सत्ता परिवर्तन का साक्षी रहा हूँ' !

​मेरी यह कथा मात्र एक व्यक्ति के जीवन का ब्यौरा नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति के बदलते आयामों पर एक निस्पृह टिप्पणी है। मेरी यात्रा उन कच्ची पगडंडियों से शुरू हुई, जो गाँवों को मुख्यधारा से जोड़ती हैं, और मेरा गंतव्य सत्ता के उच्चतम शिखर तक होने वाले परिवर्तनों का साक्षी बनना रहा है।

​युवावस्था में, जब कॉलेज के गलियारों में स्वप्न पलते थे, मैंने स्वयं को राजनीति के एक साधारण, किंतु संकल्पबद्ध कार्यकर्ता के रूप में समर्पित किया। मैं उन मूक गवाहों में से हूँ, जिन्होंने संघर्ष की तपस्या से गुज़रकर मेरे साथियों को विधानसभा से लेकर लोकसभा तक की महती यात्रा तय करते देखा है। मेरे अनेक सहकर्मी उच्च सदन और निम्न सदन की शोभा बने, मंत्रिमंडल में सुशोभित हुए और दल के सांगठनिक ढाँचे में शीर्षस्थ पद पर पहुँचे।

​मेरी राजनीति की नींव विचारों की मुस्तैदी पर टिकी रही। मेरे लिए राजनीति सिद्धांत थी, सुविधा नहीं। यह मेरा अडिग स्वाभिमान था कि मैंने कभी किसी पद की लालसा में किसी के समक्ष सिफारिश का हाथ नहीं पसारा। मैंने न कभी बड़े नेताओं के साथ जबरन फोटो खिंचवाकर मेरा प्रभाव दिखाने का प्रयास किया, न ही बिना आमंत्रण मंच साझा किया। मैं एक अनुशासित कार्यकर्ता की भाँति रहा, जिन्हें जानने-पहचानने का मोह कभी नहीं रहा। मेरी राजनीतिक चर्या उदंडता, जातीय या धार्मिक भेदभाव के कलंक से सदा मुक्त रही। यही कारण है कि सक्रियता के बावजूद, मेरे विरुद्ध आज तक किसी थाना या न्यायालय में कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ। मैंने राजनीति को विचौलियों के बजाय विचारों के साथ रखा और व्यक्तिगत लाभ के लिए कभी राजनीति नहीं की।

​मूल्यों का अवसान: राजनीति का बदलता परिदृश्य

​आज जब मैं अतीत की ओर मुड़कर देखता हूँ, तो मुझे राजनीति का स्तर चरमराता और परिवर्तित प्रतीत होता है। राजनीति, जो कभी सेवा का माध्यम थी, अब व्यवसाय, शान-शौकत और धन-संग्रह का स्रोत बन चुकी है। यह क्षेत्र अब दल-बदल की भेंट चढ़ गया है, जहाँ क्षणिक स्वार्थ के लिए निष्ठाएँ पलक झपकते ही बदल जाती हैं। स्वार्थ और कुर्सी की राजनीति ने कार्यकर्ताओं को नेता बना दिया है।

​मैं दुःख व्यक्त करता हूँ कि अब राजनीतिक संवादों का स्तर भी घटिया हो गया है। न अच्छे शब्दों का प्रयोग होता है न उचित व्यवहार। मुझे पटना के पूर्व सांसद कॉमरेड रामावतार शास्त्री जी, बिक्रम के विधायक कॉमरेड रामनाथ यादव और दानापुर के विधायक सुखसागर सिंह जैसे सच्चे जनप्रतिनिधि याद आते हैं, जिनके जीवन में सादगी और सेवा का वास था।

​इसके विपरीत, आज की राजनीति में दिखावे, शान-शौकत और अभद्र व्यवहार का बोलबाला है। कार्यकर्ताओं की जगह अब ठेकेदार, चाटुकार और दलाल जनप्रतिनिधियों के इर्द-गिर्द दुम हिलाते दिखते हैं। मेरा मानना है कि सच्चा कार्यकर्ता वह है जो जरूरत पड़ने पर अपने जनप्रतिनिधि को भी डाँटने और लड़ने की हिम्मत रखता हो। यह गुण मेरे स्वभाव में रहा, जिसके कारण मैंने मेरे समर्थक जनप्रतिनिधियों से भी संघर्ष किया है।

​शायद यही अक्खड़पन और सैद्धांतिक कठोरता कारण है कि मेरे जैसे कार्यकर्ताओं को कोई ऊपर उठते देखना नहीं चाहता।

​व्यक्तिगत बलिदान और जनता के बीच अडिग उपस्थिति

​मैंने व्यक्तिगत जीवन में भी संघर्ष झेला। मेरी धर्मपत्नी फुलवारी से जिला परिषद के चुनाव में दो बार अपनों के विश्वासघात के कारण जीतते-जीतते रनर रहीं। पर मुझे न कभी किसी से शिकायत रही, न मलाल। मैं हमेशा जनता के सुख-दुख के बीच डटा रहा। जीतने वाले दोनों बार के विजेता, सत्ता पाते ही अदृश्य हो गए और जनता उन्हें पहचानती भी नहीं।

​वर्तमान का चुनावी अखाड़ा और भविष्य की कसौटी

​वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर मेरी पैनी दृष्टि है। मुख्यमंत्री पद के लिए महागठबंधन की ओर से तेजस्वी यादव की घोषणा और उप-मुख्यमंत्री के लिए मुकेश सहनी व कांग्रेस से किसी एक के नाम की चर्चा है। लड़ाई अब सीधे आर-पार की एनडीए और महागठबंधन के बीच है। मैं यह भी बताता हूँ कि एनडीए में भाजपा द्वारा नीतीश कुमार को चेहरा मानने में संकोच किया जा रहा है, जिससे जदयू असमंजस में है।

​मैं उन लोगों की आलोचना करता हूँ, जिन्हें लालू यादव ने सब कुछ दिया, पर अब वे उन्हीं को कोसने में नहीं अघाते। मैं दृढ़ता से कहता हूँ कि 14 नवम्बर को जनता के सामने स्पष्ट हो जाएगा कि किसे क्या मिला था और किसे नहीं।

​मेरी यह यात्रा सत्ता की दौड़ नहीं, बल्कि विचारों की मशाल थामे रहने की कहानी है। यह एक ऐसे कार्यकर्ता की अमर गाथा है, जिसने सत्ता के गलियारों में भटकने की जगह संघर्ष की पगडंडियों पर चलना चुना, और इसी में मेरी सार्थकता पाई। मेरी कहानी आज की राजनीति को एक मौन प्रश्नचिह्न लगाती है।

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