लोकतंत्र के हाशिये पर आम आदमी: एक आलोचनात्मक विमर्श!- प्रो प्रसिद्ध कुमार।

   


यह विडंबना है कि जिस देश ने लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के महान आदर्शों को अपने संविधान की नींव बनाया, आज वह पूंजीवाद, परिवारवाद, और अपराधीकरण की गहरी खाई में धंसता जा रहा है। भारतीय राजनीति का वर्तमान परिदृश्य उस दर्पण के समान है, जिसमें हमें अपने लोकतांत्रिक स्वास्थ्य का गिरता हुआ प्रतिबिंब दिखाई देता है।


 'जिताऊ उम्मीदवार' का मायाजाल और आदर्शों की तिलांजलि

 आज अधिकांश राजनीतिक दल विचारधारा या चरित्र के बजाय केवल 'जिताऊ उम्मीदवार' की तलाश में हैं। चुनावी जीत ही एकमात्र पैमाना बन गई है, जिसके सामने उम्मीदवार का आपराधिक रिकॉर्ड, नैतिक आचरण या लोकहित के प्रति उसकी प्रतिबद्धता गौण हो जाती है। यह प्रवृत्ति सीधे तौर पर उन ईमानदार कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों के मनोबल को तोड़ती है, जिन्होंने दशकों तक दल के लिए निःस्वार्थ भाव से काम किया है।

कर्मठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा: जो लोग अपनी पूरी उम्र पार्टी को देते हैं, उन्हें केवल तंगहाली और बदहाली ही मिलती है, जबकि राजनीतिक विरासत वाले लोग या पैसे वाले बाहरी लोग आसानी से सत्ता के शिखर पर पहुँच जाते हैं। यह 'मेहनत' पर 'पैसा और पहुँच' की जीत है।

पूंजीवाद का वर्चस्व: राजनीति में बढ़ता पूंजी का प्रभाव, दलाली और माफियाओं की गिरफ्त को मजबूत करता है। यह स्पष्ट संकेत है कि लोकतंत्र अब 'लोगों के लिए' नहीं, बल्कि 'धनवानों के द्वारा' चलाया जाने लगा है।


परिवारवाद और 'समाजवाद' का खोखला नारा


एक-एक परिवार से कई सदस्यों का चुनाव लड़ना, या किसी एक दल में पूरे परिवार और रिश्तेदारों का समायोजन हो जाना, परिवारवाद की घिनौनी तस्वीर पेश करता है। और फिर, इन्हीं तत्वों का समाजवाद का राग अलापना,  तीखा और चुटीला व्यंग्य ही लगता है।

"समाजवाद का अर्थ है: समाज के अंतिम व्यक्ति तक सत्ता और संसाधनों का समान वितरण। लेकिन जब सत्ता एक ही परिवार या समूह के इर्द-गिर्द केंद्रित हो जाए, तो वह 'समाजवाद' नहीं, बल्कि 'परिवारवाद' का आवरण मात्र रह जाता है।"

परिवारवाद क्षमता और योग्यता को दरकिनार कर वंश और विरासत को प्राथमिकता देता है, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए विष के समान है।

 जनता की चुप्पी: लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा


सबसे अधिक चिंताजनक पहलू वह है जिस पर आपने जोर दिया है: दलबदल करने वाले नेताओं के प्रति जनता की चुप्पी। किसी नेता का बार-बार दल बदलना अवसरवाद और सिद्धांतहीन राजनीति का प्रमाण है। जब ऐसे नेता बार-बार चुने जाते हैं और जनता उनसे कोई सवाल नहीं पूछती, तो यह केवल उनकी हार नहीं, बल्कि स्वयं लोकतंत्र की हार है।

प्रश्न पूछना लोकतंत्र का प्राण है: एक जीवंत लोकतंत्र की पहचान यह है कि वहाँ की जनता अपने प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराती है। जनप्रतिनिधियों से सवाल करना, उनके दलबदल, फैसलों और आचरण पर प्रश्नचिह्न लगाना लोकतंत्र का तकाजा है।

घातक चुप्पी: यह चुप्पी नेताओं को यह संदेश देती है कि वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, क्योंकि उन्हें जनता के आक्रोश का कोई डर नहीं है।

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