आत्म-मंथन का क्षण: बिहार की राजनीति में कायस्थ समाज को मिला 'संकेत' ! जितेंद्र कुमार सिन्हा के साथ प्रो प्रसिद्ध कुमार।
(डॉ दीपेंद्र भूषण )
कुम्हरार सीट पर टिकट कटने से जागा कायस्थ समाज; क्या एनडीए ने 'समर्पित बौद्धिक वर्ग' को नज़रअंदाज़ कर गलती की है?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कायस्थ समाज को टिकट बंटवारे में जो मिला है, वह महज़ संख्याओं का हिसाब-किताब नहीं है, बल्कि एक "संकेत" है। यह संकेत स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि राजनीतिक दल—विशेषकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) जिससे कायस्थ समाज पारंपरिक रूप से जुड़ा रहा है—समाज की मौन स्वीकृति को उसकी राजनीतिक निष्क्रियता मान रहे हैं।
आलोचनात्मक विश्लेषण:
1. "संकेत" और राजनीतिक विस्मृति (Political Amnesia):
कायस्थ समाज को मिला कम प्रतिनिधित्व, खासकर पटना के कुम्हरार जैसी कायस्थ-बहुल सीट पर निवर्तमान विधायक अरुण सिन्हा (कायस्थ) का टिकट काटकर वैश्य समाज के उम्मीदवार को देना, एक गहरी उपेक्षा का प्रमाण है। कुम्हरार में सवा लाख कायस्थ मतदाताओं की निर्णायक संख्या है। मोतिहारी, गया और भागलपुर जैसे जिलों में भी यह समाज निर्णायक भूमिका में है, फिर भी इनका प्रतिनिधित्व घटाया गया। यह राजनीति का सीधा संदेश है: अगर समाज अपनी आवाज़ खो देगा, तो राजनीति उसे भूल जाएगी।
2. NDA के लिए आत्म-मंथन का क्षण:
NDA के लिए यह गंभीर आत्म-मंथन का समय है। कायस्थ समाज दशकों से भाजपा का 'समर्पित बौद्धिक वर्ग' और 'कोर वोटर' माना जाता रहा है। यह वर्ग न केवल वोट देता है, बल्कि विचारधारा का प्रचार करता है, चुनावी प्रबंधन में सहयोग करता है और बूथ स्तर पर अपनी पैठ रखता है। इस वर्ग को नज़रअंदाज़ करके, क्या NDA ने अपने सबसे वफादार और संगठनात्मक रूप से मजबूत आधार को नाराज़ करने की गलती की है? राजनीतिक लाभ के लिए अन्य जातिगत समीकरणों को साधने की होड़ में, इस वर्ग की अनदेखी करना भविष्य में भारी पड़ सकता है, खासकर तब जब अन्य दल (जैसे जन सुराज) सक्रिय रूप से कायस्थ चेहरों को मैदान में उतार रहे हैं।
3. कायस्थ समाज के लिए "जागरण" का समय:
समाज के लिए यह मौन रहने का नहीं, बल्कि जागरण का समय है। इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि केवल 'समर्पित मतदाता' बने रहने से राजनीतिक सम्मान नहीं मिलेगा। सम्मान की लड़ाई अब शुरू होती है। बिहार की राजनीति का इतिहास बताता है कि बदलाव हमेशा ज़मीनी संख्या बल के साथ-साथ विचारों और बौद्धिक नेतृत्व से आया है। कायस्थ समाज विचारों का प्रतिनिधि है। यदि यह वर्ग अब भी राजनीतिक रूप से एकजुट नहीं हुआ और सम्मान की लड़ाई नहीं लड़ी, तो आने वाले दशकों में इसकी राजनीतिक चेतना विलुप्त हो सकती है।
सार रूप में प्रतिक्रिया:
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कायस्थ समाज के साथ हुए टिकट वितरण ने बिहार की राजनीति में एक नए राजनीतिक समीकरण की आहट दी है। यह 'संकेत' कायस्थ समाज के लिए एक वेक-अप कॉल है, जिसका सार यह है: राजनीतिक सम्मान केवल संख्या बल से नहीं, बल्कि मुखर और संगठित राजनीतिक चेतना से मिलता है।
आगे की राह:
यह उपेक्षा ही कायस्थ समाज के लिए आत्म-निर्भर राजनीतिक चेतना की नींव बन सकती है। यदि यह वर्ग अपने मौन को तोड़कर एकजुट होता है, अपने मुद्दों पर मुखर होता है, और यह संदेश स्पष्ट करता है कि वह अब केवल "वोट बैंक" नहीं, बल्कि "राजनीतिक साझेदार" बनेगा, तो आने वाले दशक में बिहार की राजनीति की दिशा निश्चित रूप से बदल जाएगी। राजनीतिक दल उसे तब तक नज़रअंदाज़ करते रहेंगे, जब तक वह अपने लिए 'स्वयं का मंच' नहीं बनाएगा।
नोट-यह आलेख जितेन्द्र कुमार सिन्हा: समर्पित पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यसेवी ,सेवा निवृत्त प्रेस सहायक, सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग, बिहार सरकार के रिपोर्ट व कई सेवानिवृत्त अधिकारियों से बातचीत पर आधारित है।


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