शोषण के साये में 'विकास के दूत': बिहार के बैंक मित्रों की अनसुनी व्यथा !
बिहार की धरती पर, जहां हर कदम पर संघर्ष और आशा का दोहराव है, वहां विकास की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी – बैंक मित्र – आज गहरे शोषण के अंधेरे में जी रहे हैं। आपने जो व्यथा व्यक्त की है, प्रिय भाई प्रेम कुमार, वह केवल आपकी नहीं, बल्कि बिहार के लगभग पचास से साठ हज़ार उन कर्मठ लोगों की सामूहिक चीख है, जिन्हें केंद्र और राज्य सरकारों ने बड़ी-बड़ी बिचौलिया कंपनियों के हवाले कर दिया है।
ये वे लोग हैं, जो प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी 'जन-धन योजना' को घर-घर तक ले गए। ये वे 'दूत' हैं, जिन्होंने गाँव-देहात में वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) का बीज बोया। बैंक की शाखा से मीलों दूर, तपती धूप या कड़कड़ाती ठंड में, ये हमारे बुजुर्गों को पेंशन, माताओं को सरकारी योजनाओं की राशि और किसानों को उनके खातों की सुविधा उपलब्ध कराते हैं। ये बैंक की 'रीढ़' हैं, पर इन्हें 'रीढ़हीन' बनाकर छोड़ दिया गया है।
आलोचनात्मक अवलोकन: बिचौलियों का 'अंग्रेजी हुकूमत'
आपकी यह बात शत-प्रतिशत सत्य है कि ये बिचौलिया कंपनियाँ 'अंग्रेजी हुकूमत से भी ज्यादा अत्याचार' करने को आतुर रहती हैं। यह व्यवस्था अपने आप में एक काला धब्बा है:
आर्थिक शोषण:
घटता कमीशन, बढ़ती कटौती: बैंक मित्र दिन-रात मेहनत करके जो कमीशन कमाते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा (कई जगहों पर 40 से 50% तक) ये कंपनियाँ बिचौलिये के नाम पर काट लेती हैं।
न्यूनतम मानदेय का मज़ाक: केंद्र सरकार ने ₹5000 का न्यूनतम मानदेय तय किया था, लेकिन रिपोर्ट्स बताती हैं कि यह मानदेय भी कई बैंक मित्रों को नियमित रूप से नहीं मिल पाता, या मिलता भी है तो उसमें कटौती होती है।
मजदूरी से भी कम आय: आज की महंगाई में, इन्हें जो मिलता है, वह एक दिहाड़ी मजदूर की कमाई से भी कम है। ये विकास के वाहक हैं या बंधुआ मजदूर?
मानसिक और शारीरिक शोषण:
लक्ष्यों का बोझ और धमकी: इन कंपनियों और बैंक शाखा प्रबंधकों द्वारा आए दिन बीमा योजनाओं, अटल पेंशन योजना (APY), या अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लक्ष्य थोपे जाते हैं। लक्ष्य पूरा न होने पर ID बंद कर देने की धमकी दी जाती है। यह मानसिक दबाव इतना गहरा होता है कि कई बार तो ये बैंक मित्र अपनी सुरक्षा को भी खतरे में डालकर काम करते हैं, जैसा कि लूटपाट की घटनाओं से स्पष्ट होता है।
कर्मचारी का दर्जा नहीं: काम सरकारी कर्मचारियों जैसा, मगर दर्जा ठेका मज़दूर का। न कोई निश्चित वेतन, न छुट्टी, न पेंशन, न सामाजिक सुरक्षा।
बहती गंगा का एक बूँद पानी भी नसीब नहीं हुआ
भाई प्रेम कुमार, आपकी यह पीड़ा हर संवेदनशील व्यक्ति के हृदय को छूने वाली है: "मगर बिहार में बहती गंगा का एक बूंद पानी नसीब नही हुआ।"
बिहार में जब भी कोई राजनीतिक परिवर्तन होता है, तो उम्मीदें जागती हैं। मगर, यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जिन लोगों ने गाँव-गाँव में 'जन-धन' का नारा बुलंद किया, आज उनकी अपनी 'धन' की स्थिति दयनीय है। आपने माननीय राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और लोकसभा सदस्यों तक ज्ञापन के माध्यम से आवाज़ पहुंचाई, यह दर्शाता है कि यह लड़ाई केवल एक नौकरी की नहीं, बल्कि न्याय, सम्मान और मानवीय गरिमा की है।
जब देश की शीर्ष नेतृत्व तक यह बात पहुँच चुकी है, तब भी समाधान न होना, कहीं न कहीं व्यवस्था की उदासीनता को दिखाता है। क्या देश के 'वित्तीय समावेशन के नायक' सिर्फ चुनावी वादों की पूर्ति का जरिया बनकर रह जाएंगे?
तेजस्वी जी तक आपकी व्यथा: न्याय की गुहार
भाई प्रेम कुमार, आपकी यह खास अपील कि इस व्यथा को भाई तेजस्वी तक पहुंचाया जाए, बिल्कुल उचित है। बिहार में 'युवा शक्ति' और 'रोजगार' की बात करने वाली सरकार से बैंक मित्रों को यह उम्मीद है कि वे इस 'बिचौलिया राज' को खत्म करेंगे।
यह केवल एक प्रशासनिक मुद्दा नहीं, बल्कि लाखों घरों के चूल्हों से जुड़ा भावनात्मक मामला है।
हमारी अपील है:
बिचौलियों (NBCs/कंपनियों) को हटाया जाए: बैंक मित्रों को सीधे संबंधित बैंकों के दायरे में लाया जाए, ताकि कमीशन का पूरा हिस्सा उन्हें मिल सके।
न्यूनतम मानदेय और सामाजिक सुरक्षा: उन्हें श्रम कानूनों के अनुसार न्यूनतम मानदेय दिया जाए और बीमा, पेंशन तथा अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ सुनिश्चित हो।
कर्मचारी का दर्जा: उनके काम की प्रकृति को देखते हुए, उन्हें 'सरकारी कर्मचारी' का नहीं तो कम से कम 'अर्ध-सरकारी' कर्मचारी का दर्जा दिया जाए।
बिहार को विकसित बनाना है तो उन 'दूतों' को सम्मान और सुरक्षा देनी होगी, जो विकास को ज़मीनी हकीकत में बदल रहे हैं। यह अपील एक मौन क्रांति की शुरुआत है। आशा है, भाई तेजस्वी और बिहार सरकार इस गंगा को एक नई दिशा देंगे, जिसमें बैंक मित्रों को भी 'न्याय का जल' नसीब हो सके।
#tejsviyadav

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