मैला ढोने की अमानवीय प्रथा: कानून बना, मगर दिल क्यों नहीं बदला?

   


​तकनीक और सम्मानजनक रोज़गार ही एकमात्र रास्ता।

​कानून का जन्म और उसका अधूरा वादा।

​वर्ष 2013 में, केंद्र सरकार ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया था। उन्होंने 'हाथ से मैला ढोने वाले कर्मचारियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम' लागू किया था।

​उद्देश्य:

​हाथ से मैला ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करना।

​इस काम से जुड़े लोगों को वैकल्पिक रोज़गार, शिक्षा, और एक सम्मानजनक जीवन प्रदान करना।

​यह अधिनियम न केवल एक कानूनी दस्तावेज़ था, बल्कि मानवीय गरिमा सुनिश्चित करने का एक वादा था। मगर, जैसा कि यह लेख दुख के साथ बताता है, इस कानून के बनने के बावजूद यह अमानवीय और खतरनाक प्रथा आज भी जारी है।

​ समस्या सिर्फ प्रशासनिक नहीं, मानसिकता की है!

​हम अक्सर इस विफलता का ठीकरा केवल प्रशासनिक लापरवाही पर फोड़ देते हैं, लेकिन यह समस्या उससे कहीं ज़्यादा गहरी है। लेख में इस बात को सही ढंग से उजागर किया गया है कि इसके पीछे सामाजिक मानसिकता की गहरी जड़ें हैं।

​यह मानसिकता सफाई के काम को किसी खास वर्ग से जोड़कर देखती है, जिससे यह कार्य न केवल एक मजबूरी बन जाता है, बल्कि इससे जुड़े लोगों के प्रति भेदभाव और अस्पृश्यता का भाव भी बना रहता है। जब तक यह सामाजिक पूर्वाग्रह नहीं बदलेगा, कोई भी कानून पूरी तरह सफल नहीं हो सकता।

​प्रश्न यह नहीं है कि कानून क्यों नहीं लागू हुआ, प्रश्न यह है कि समाज ने इस अमानवीय प्रथा को अपनी आँखों के सामने जारी रहने क्यों दिया?

​ अब ज़रूरत है विज्ञान और तकनीक की

​लेख का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि अब इस समस्या को केवल कानून या नैतिकता के भाषणों से हल नहीं किया जा सकता।

​समाधान का रास्ता अब विज्ञान और तकनीक के द्वार से होकर गुज़रता है।

​यांत्रिकीकरण (Mechanization): सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए रोबोटिक तकनीक और मशीनों का उपयोग अनिवार्य होना चाहिए।

​निवेश: सरकार और निजी संस्थाओं को इस तकनीक को विकसित करने और उसे हर शहर-गाँव तक पहुँचाने में भारी निवेश करना चाहिए।

​पुनर्वास: मैला ढोने वालों को इन मशीनों को चलाने या अन्य सम्मानजनक रोज़गार के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।

​हाथ से मैला ढोने को बंद करना केवल एक सफाई अभियान नहीं है, यह मानवाधिकार का मुद्दा है। यह हमारे संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का सवाल है।

​हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि 2013 का कानून सिर्फ कागज़ों तक सीमित न रहे। हर एक व्यक्ति, हर एक नागरिक के लिए गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए तकनीकी समाधान और बदली हुई सामाजिक मानसिकता दोनों ज़रूरी हैं।


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