स्मृति-शेष: रामायण के सुरों में रचे-बसे मेरे पिताश्री !-प्रो प्रसिद्ध कुमार।
भाग - 2: भक्ति का अजस्र प्रवाह और संस्कारों की विरासत
भोर की पहली किरण और राम-नाम का गुंजन !
पिताश्री के दिन का आरंभ किसी अलार्म से नहीं, बल्कि 'मंगल भवन अमंगल हारी' की पावन चौपाइयों से होता था। जैसे ही सूर्य की पहली रश्मि आंगन को स्पर्श करती, पिताश्री के कंठ से फूटती सुरीली तान— 'श्रीरामचन्द्र कृपालु भजुमन'— पूरे घर को किसी मंदिर की पवित्रता से भर देती थी। 'जय जय जय गिरिराज किशोरी' के छंदों को जब वे अपनी विशेष रागिनी में गाते, तो ऐसा प्रतीत होता मानो भक्ति साक्षात शब्द बनकर हवा में तैर रही हो। उनके व्यक्तित्व में राम-नाम की ऐसी व्याप्ति थी कि लोग उनका वास्तविक नाम 'रामकिशुन' भूलकर उन्हें श्रद्धा से 'रामजी' ही पुकारने लगे थे।
नामों की त्रिवेणी और एक मेधावी टीस
यह एक अद्भुत संयोग ही था कि हमारे परिवार में भक्ति की गंगा नामों के माध्यम से प्रवाहित होती थी। दादाजी 'रामदेव राय' से लेकर पिताश्री के सभी भाइयों— रामावतार राय, रामाश्रय राय और राम करण राय— के नामों के मूल में 'राम' ही विराजमान थे।
किन्तु इस पारिवारिक सुख के उपवन में एक टीस हमेशा बनी रही। सबसे छोटे चाचा, जो विद्यार्थी जीवन में ही असाध्य रोग के कारण 'अल्पायु' में ही इस नश्वर संसार को त्याग गए, उनकी मेधा की चर्चा आज भी पिताश्री की आँखों में नमी भर देती थी। पिताश्री बताते थे कि वे गणित और विज्ञान के जटिल प्रश्नों को उंगलियों पर हल कर दिया करते थे। यद्यपि वे चले गए, किन्तु उनकी बौद्धिक प्रखरता का प्रकाश मेरे फुफेरे भाई पर पड़ा, जिन्हें उन्होंने पढ़ाया था। वही भाई आगे चलकर एक कुशल इंजीनियर बने और पिताश्री के कुल का मान बढ़ाया। पिताश्री अक्सर लंबी सांस भरकर कहते— "छोटा भाई आज होता, तो सफलता के शिखर पर होता।"
सांप्रदायिक सौहार्द की मधुर बयार
सेवानिवृत्ति के पश्चात, खगौल (पटना) के रेलवे क्वार्टर में पिताश्री ने सवा महीने तक रामचरितमानस का अखंड पाठ और कथा वाचन किया। वह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का उत्सव बन गया था। वहाँ रहने वाले 'हक साहेब', जो डीआरएम कार्यालय में बड़े बाबू थे, सपरिवार कथा सुनने आते थे। उनके शब्द आज भी धरोहर हैं— "इस कथा ने मुझे श्रीराम के दर्शन कराए और रामायण के प्रति मेरी श्रद्धा जगा दी।" यह पिताश्री की वाणी का ही जादू था कि धर्म की दीवारें भक्ति के प्रवाह में ढह गई थीं।
अनमनेपन से अनुराग तक: एक पुत्र का हृदय परिवर्तन
वह बचपन के दिन भी क्या दिन थे! घर के दलान पर बैठकर जब पिताश्री छंद, सोरठ और चौपाइयों को उनकी विशेष लय में गाते, तो उन्हें एक श्रोता की दरकार होती। वह 'अनिवार्य श्रोता' अक्सर मैं ही बनता था। तब मेरी आयु चंचलता की थी; मुझे वह भजन-कीर्तन 'बुजुर्गों का समय-पास' और युवाओं के लिए 'समय की बर्बादी' प्रतीत होता था। मैं सड़क पर किसी राहगीर की बाट जोहता रहता कि कोई आए और मैं उसे पिताश्री के पास 'फंसाकर' खुद खेल की दुनिया में भाग जाऊं।
किन्तु नियति को कुछ और ही स्वीकार था। जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही पिताश्री की उस 'जबरन संगत' ने मेरे भीतर भी साहित्य और भक्ति का बीज बो दिया। आज जब वे शारीरिक रूप से साथ नहीं हैं, तब उनकी वही सुरीली आवाज मेरे कानों में गूँजती है। आज भजन, कीर्तन और साहित्य में मेरी जो रुचि है, वह उन्हीं की साधना का प्रसाद है। पिताश्री ने जाते-जाते मुझे सुरों और शब्दों की वह जादुई विरासत सौंप दी, जो जीवन के हर अंधकार में मेरा मार्ग प्रशस्त करती है।
शेष आगे...

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