मुखौटे और मन: यह कैसा काल है? ( कविता )-प्रो प्रसिद्ध कुमार।
सब कुछ सहता जो मौन है,
देव सदृश्य लगता, पर कौन है?
होंठों पे कुटिल मुस्कान लिए,
यह कैसा व्यक्तित्व अद्वितीय है?
तन पर सफेद वस्त्र सुहाए,
पर काजल की कोठरी कलेजे बसाए।
जिह्वा पर असत्य का वास केवल,
यह कैसी मायावी चाल है?
नहीं बूझ पाते इसकी पहेली,
ये कैसा जटिल त्रिकोण है?
कल तक जो भागा छोड़ अपनों को,
जिम्मेवारियों से मुँह मोड़कर।
कामचोर, कर्महीन वो था जो,
आज लोग भागे पीछे, सबको छोड़कर।
दीवारें और घाव
किसका क्या भला हुआ, बताओ?
हाँ, नफरत की दीवारें ज़रूर खड़ी हुईं।
पूजा की, इबादत की,
राम की, रहीम की,
और साथ-साथ रहने की आदत की।
परिवर्तन के नाम पर नाम बदले,
विकास के नाम पर किसान, जवान लहूलुहान हुए।
भ्रष्टाचार मिटा नहीं,
पर भ्रष्टाचारी जरूर दूर भाग गए।
पूँजीपतियों के कर्ज माफ होते रहे,
गरीबों के सर से झोपड़ी उजड़ती रही।
न किसानों की आय हुई दूनी,
न भूमिहीनों को मिली ज़मीं की पर्ची।
स्वप्न और यथार्थ
बढ़ती महंगाई की मार,
घटते रुपये के मूल्य का भार।
विदेशों से वीज़ा हुआ महंगा,
बढ़ती बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण।
क्या यही है रामराज्य की कल्पना?
क्या यह वही नया सवेरा है,
जहाँ मुखौटे चमकते हैं,
और भीतर का मन मैला है?
यह कैसा छलावा है,
जहाँ प्रश्न पूछना भी एक गुनाह है।

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