चीख़ती दीवारें: विकास की दौड़ में पिछड़ा इंसान !
यह हमारे तथाकथित 'विकसित' समाज के माथे पर लगा एक ऐसा अमिट कलंक है, जो बताता है कि गगनचुंबी इमारतों और द्रुतगामी रेलों के नीचे आज भी इंसानियत किस तरह कराह रही है। मुज़फ़्फ़रनगर (यादवपुर) से आई यह घटना, जहाँ एक पिता अपने पाँच बच्चों के साथ फाँसी के फंदे पर झूल गया, मात्र एक आत्महत्या नहीं है—यह एक ऐसी हृदय-विदारक चीख़ है जिसे सभ्य समाज ने सुनने से इंकार कर दिया।
ग़रीबी का फंदा या सूदखोरी का शिकंजा?
40 वर्षीय अमरनाथ राम अपनी पत्नी और बच्चों के साथ उस अंतिम, भयानक निर्णय पर क्यों पहुँचे। कारण है - कर्ज और आर्थिक तंगी, जिसे आम बोलचाल में 'सूदखोर' के उत्पीड़न का नाम दिया जाता है। एक तरफ़ हम डिजिटल इंडिया, 5 ट्रिलियन इकोनॉमी की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ समाज की अंतिम पंक्ति का एक मज़दूर चंद रुपयों के कर्ज़ के बोझ तले इतना दब जाता है कि उसे अपने मासूम बच्चों की जान लेने और ख़ुद मरने में ही मुक्ति नज़र आती है।
आज भी अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग जानवरों से बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं।
यह विस्मय की पराकाष्ठा है कि जिस देश में संविधान ने सबको समान अधिकार दिए हैं, वहाँ आज भी ग़रीबी और जातिगत पृष्ठभूमि के कारण लोगों को 'इज्जत की ज़िंदगी' नसीब नहीं होती। वह सूदखोर, जिसने एक परिवार को लील लिया, उसकी रसूख और प्रतिष्ठा आज भी समाज में बनी हुई है। यह कैसी विडंबना है कि सूदखोर का धंधा फल-फूल रहा है, जबकि व्यवस्था और कानून इन शोषकों के सामने घुटने टेक देते हैं!
विकास की परिभाषा पर सवाल
सरकारें बड़े-बड़े दावे करती हैं। सड़कें बन रही हैं, पुल बन रहे हैं, रोज़गार मेले लग रहे हैं। लेकिन क्या यह 'विकास' है?
सड़कें, रेल, भवन निर्माण सिर्फ़ इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट हैं। असली विकास वह होता है जब अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को सम्मान से जीने का अधिकार मिलता है।
जब तक अमरनाथ जैसे ग़रीब, दलित, वंचित परिवारों को इज्जत से रहने के लिए दो जून की रोटी, बच्चों को अच्छी शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक ये भव्य विकास परियोजनाएं केवल खोखली प्रगति की निशानी हैं। विकास की ये चमक फीकी है, अगर वह एक पिता को अपने बच्चों के साथ फंदे पर लटकने से नहीं रोक सकती।
यह घटना व्यवस्था पर एक तीखा प्रहार है। यह सवाल करती है: आप किसे बचा रहे हैं—सूदखोर की प्रतिष्ठा को या ग़रीब की ज़िंदगी को?
अमरनाथ राम का परिवार आज एक मार्मिक कहानी बनकर रह गया है, जो हमें याद दिलाता है कि आर्थिक न्याय और सामाजिक समरसता के बिना कोई भी विकास पूर्ण नहीं हो सकता। उनकी मौत केवल एक परिवार का अंत नहीं, बल्कि उस भारतीय समाज की आत्मा पर लगा गहरा घाव है, जो 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे को साकार करने में अब तक विफल रहा है।

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