क्रांतिकारी शहीद बिरद मांझी: वह मशाल जो अँधेरे में जली❤️🔥
🔥अन्याय के विरुद्ध उठी पहली चिंगारी (1970-80 दशक)
प्यारे दोस्तों, यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक आग की है—वह आग जो 1970-80 के दशक में, आज़ादी के 20 साल बाद भी, ज़मींदारी और सामंतशाही की काली छाया में जी रहे दलितों और पिछड़ों के हृदय में भड़की थी। कहने को तो देश में बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर का संविधान लागू हो चुका था, लेकिन उसकी रौशनी गाँवों की संकरी गलियों और दलितों के डेरों तक नहीं पहुँची थी।
वह समय ऐसा था जब निचले तबके के लोग सवर्ण जाति और ज़मींदारों के सामने अपने घर-आँगन में भी खटिया या कुर्सी पर बैठने का साहस नहीं कर सकते थे। शादी-विवाह या श्राद्ध में उन्हें पंगत में सड़क-गलियों के किनारे, या गोशालाओं के पास ज़मीन पर बिठाकर खाना खिलाया जाता था। वे उनके सामने चप्पल या जूता पहनने की हिमाकत नहीं कर सकते थे। खेत-खलिहान में कम मज़दूरी पर भी काम करने से इनकार करना मौत को दावत देने जैसा था, चाहे वे बीमार हों, कमज़ोर हों, या उनके घर में कोई ज़रूरी काम हो। आत्मसम्मान शब्द केवल किताबों तक सीमित था, और इसी अपमान की आग में एक नौजवान तपने लगा, जिसका नाम था बिरद मांझी।
डिहरी गाँव का बेटा: बिरद का उदय
पटना ज़िला के पुनपुन प्रखंड के डिहरी गाँव (वर्तमान में पुरैनिया गाँव के निकट) के निवासी, बिरद मांझी, स्व० मक्खू मांझी के चार बेटों में सबसे बड़े थे। उनके भाई स्व० नारायण मांझी, स्व० दसई मांझी, और सबसे छोटे भाई रामजतन मांझी (जो बाद में उनके साथ शहीद हुए) थे। उनके जीवन में एक गहरा दुख तब आया जब उनका बेटा, स्व० सुदेश्वर मांझी, मात्र 10 वर्ष की अल्पायु में डायरिया से काल के गाल में समा गया। पिता के रूप में इस आघात ने शायद उन्हें जीवन की क्षणभंगुरता और बड़े संघर्ष के लिए तैयार किया होगा। उनकी दो बेटियाँ, स्व० श्याम सुन्दर देवी और श्रीमती दुलारी देवी, उनकी विरासत की मूक गवाह बनीं।
उन दिनों, यह इलाका पूरब में रेलवे लाइन, दक्षिण में मसौढ़ी, और पश्चिम-उत्तर में पुनपुन नदी से घिरा हुआ एक टापू जैसा था। आवागमन का एकमात्र साधन संकीर्ण कच्ची सड़कें, पगडण्डी, और बैलगाड़ी हुआ करती थी—एक ऐसा भौगोलिक एकांत जिसने अन्याय को और गहरा कर दिया था।
दस्ता का कमांडर: बिरद मांझी का तेवर
इसी पृष्ठभूमि में, बिरद मांझी ने वर्ग-संघर्ष की राह चुनी। भाकपा (माले) बिहार के ग्रामीण इलाकों में गरीबों के हक की लड़ाई की अगुआई कर रही थी, जबकि ज़मींदारों की तरफ से भूमि सेना और लोरिक सेना बंदूक ताने खड़ी थीं। यह लड़ाई कम मज़दूरी और शोषण के खिलाफ़ शुरू हुई थी, लेकिन सामंती ज़ोर-जबरदस्ती ने इसे जल्द ही एक खूनी संघर्ष में बदल दिया।
अपनी जवानी में ही बिरद मांझी भाकपा (माले) के आर्म फ़ोर्स जिसे दस्ता कहा गया, में शामिल हो गए। उनका लड़ाकू तेवर, ऊर्जा और संघर्षशीलता ऐसी थी कि बहुत कम समय में ही वे दस्ता के पटना-गया का एरिया कमांडर बन गए।
बिरद, अपने नाम से अधिक "बिरद" के नाम से मशहूर हो गए, और उनकी लोकप्रियता पटना, भोजपुर और गया ज़िला के दलितों, गरीबों और कमज़ोर वर्गों के बीच एक सहानुभूतिपूर्ण छाया की तरह फैल गई। ज़मींदारों में उनके नाम का खौफ और दहशत पैदा हो गया, जबकि शोषित वर्ग उनके साये में सुरक्षित महसूस करने लगे। वह एक मसीहा बन गए थे, जिसने पैदल ही पटना, भोजपुर और गया के ग्रामीण इलाकों को नाप दिया था, हर कदम पर न्याय की अलख जगाते हुए।
घोरहुआ का बलिदान: 3 जून, 1975
जून, 1975... एक ऐसी तारीख जिसने अन्याय की कहानी पर एक लहू से लिखा अध्याय जोड़ दिया। बिरद मांझी, दस्ता का नेतृत्व करते हुए, पटना ज़िला के मसौढ़ी प्रखंड के घोरहुआ (कराई-लहसुना पंचायत) की मुसहर टोली में रुके हुए थे। यह टोली दक्षिण-पूरब से मोरहर नदी और शेष दिशाओं से खुले बधार से घिरी थी।
2 जून, 1975 को मुखबिरों ने उन्हें धोखा दिया। केंद्रीय पुलिस और सवर्ण जाति-ज़मींदारों की निजी सेना ने टोली को घेर लिया। स्थानीय निवासी शंकर मांझी बताते हैं कि 18-18 घंटे तक दोनों तरफ से गोलियों की बौछार होती रही। बिरद मांझी और उनके साथी अपनी जान की परवाह न करते हुए लड़ते रहे, वे पकड़ में नहीं आ सके थे।
लेकिन, मुखबिर की निशानदेही पर, उनके छिपने के स्थान ज़मीन के अंदर भुन्जाबरा को खोज निकाला गया। यह अंतिम पल था।
3 जून, 1975 को, उस खूनी मुठभेड़ में, 15 लोगों के साथ क्रांतिकारी शहीद बिरद मांझी को गोली मारकर निर्ममता से हत्या कर दी गई। इस शहादत में उनके सगे भाई रामजी मांझी और चचेरे भाई रामजतन मांझी भी शामिल थे।
यह अंत नहीं था, यह एक बलिदान था। बिरद मांझी का वह आदम्य साहस, जो अपने लिए नहीं, बल्कि सदियों से दबे-कुचले लोगों के आत्मसम्मान और हक के लिए लड़ा, आज भी उनके गाँव डिहरी और घोरहुआ की मिट्टी को ऋणी बनाए हुए है।
वे एक क्रांतिकारी मशाल थे, जो अँधेरे को चीरने के लिए खुद जलकर राख हो गए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ सिर उठाकर जी सकें।


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