भारत में भेदभाव और जातिवाद का दंश: - प्रो प्रसिद्ध कुमार।
भारत, जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है, यहाँ पर उच्च और निम्न वर्ग, विशेषकर जाति और आर्थिक स्थिति के आधार पर होने वाला व्यवहार, आज भी उसके संवैधानिक आदर्शों के विपरीत एक कड़वी सच्चाई है।
1. जातिवाद की गहरी जड़ें
सदियों पुरानी जाति व्यवस्था भारत में सामाजिक असमानता का सबसे बड़ा कारण रही है। हालांकि संविधान ने जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त कर दिया है और अस्पृश्यता को एक दंडनीय अपराध घोषित किया है, फिर भी व्यवहार में यह भेदभाव आज भी जीवित है:
सामाजिक बहिष्कार: आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में, और कई बार शहरी क्षेत्रों में भी, दलितों (पिछड़े वर्ग) को सार्वजनिक कुओं, मंदिरों और सामुदायिक भोजों से अलग रखा जाता है। यह उनके मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है।
व्यवसायिक/शैक्षणिक भेदभाव: भले ही आरक्षित सीटें उपलब्ध हों, निम्न जाति पृष्ठभूमि के लोगों को अक्सर शिक्षण संस्थानों और उच्च-पदस्थ नौकरियों में सामाजिक पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी प्रतिभा दब जाती है।
2. आर्थिक विषमता और वर्ग भेद
मंडेला का कथन केवल जाति पर ही नहीं, बल्कि आर्थिक वर्ग पर भी लागू होता है। भारत में उच्च वर्ग (समृद्ध) और निम्न वर्ग (गरीब) के बीच की खाई लगातार चौड़ी हो रही है।
स्वास्थ्य और शिक्षा: उच्च वर्ग को जहाँ निजी और विश्वस्तरीय स्वास्थ्य सेवाएँ तथा शिक्षा आसानी से उपलब्ध है, वहीं निम्न वर्ग को सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की खराब गुणवत्ता से संतोष करना पड़ता है। महामारी (जैसे COVID-19) के दौरान, इस विषमता का प्रभाव और भी स्पष्ट रूप से दिखाई दिया, जब प्रवासी मजदूरों को भयानक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
कानून का शासन: न्याय की पहुँच में भी वर्ग भेद है। आर्थिक रूप से कमजोर लोग अक्सर महँगे वकीलों और लंबी कानूनी प्रक्रियाओं का खर्च नहीं उठा पाते, जिसके कारण न्याय उनके लिए एक दुर्लभ वस्तु बन जाता है।
3. लोकतंत्र की विफलता और आलोचना
मंडेला के पैमाने पर, भारत को अभी भी एक सफल राष्ट्र बनने के लिए लंबी दूरी तय करनी है।
अखंडता का प्रश्न: देश की प्रगति को केवल शेयर बाजार, GDP या उच्च वर्ग की जीवनशैली से नहीं मापा जाना चाहिए, बल्कि इस बात से मापा जाना चाहिए कि सड़क पर झाड़ू लगाने वाले, दिहाड़ी मजदूर, और सुदूर गाँव में रहने वाले गरीब व्यक्ति को कितनी गरिमा और न्याय मिल रहा है।
सत्ता का दोहरा मापदंड: अक्सर देखने में आता है कि उच्च वर्ग या राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों के लिए कानून और व्यवस्था का रुख नरम हो जाता है, जबकि निम्न वर्ग के लिए यह कठोरता से लागू होता है। यह दर्शाता है कि राज्य निम्न वर्ग के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है।
मंडेला का यह विचार भारतीय समाज के लिए एक आईना है। जब तक देश का ध्यान सबसे कमजोर और पिछड़े नागरिक के उत्थान, सुरक्षा और गरिमा पर केंद्रित नहीं होगा, तब तक हम विश्वगुरु या पूर्ण विकसित राष्ट्र होने का दावा नहीं कर सकते।
एक सच्चे लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण राष्ट्र के रूप में भारत की सफलता को उसके आर्थिक अभिजात वर्ग के धन से नहीं, बल्कि वंचितों और शोषितों के साथ किए गए उसके न्याय और सम्मान से मापा जाएगा।

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