आत्म-सम्मान - बाहरी प्रशंसा और आंतरिक गरिमा के बीच का मनोविज्ञान !
"लोकैषणा बनाम स्व-बोध: आत्म-सम्मान की मनोवैज्ञानिक यात्रा" !
आधुनिक युग में, जहाँ हमारी पहचान सोशल मीडिया के 'लाइक्स' और समाज की 'स्वीकृति' पर टिकी है, यह विचार एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप की तरह है। जीवन का सबसे बड़ा संतोष यह नहीं है कि दुनिया हमें कितना सम्मान देती है, बल्कि यह है कि हम स्वयं को कितना सम्मान देते हैं।
1. सामाजिक तुलना का मनोविज्ञान
सामाजिक मनोविज्ञान के अनुसार, मनुष्य अक्सर अपनी योग्यता का आकलन दूसरों से तुलना करके करता है। हम बाहरी सम्मान को अपनी सफलता का पैमाना मान लेते हैं। लेकिन यह 'बाहरी सम्मान' अस्थिर होता है। जब समाज की प्रशंसा कम होती है, तो व्यक्ति का आत्मविश्वास गिर जाता है। हमें इस बाहरी निर्भरता से मुक्त कर 'आंतरिक नियंत्रण' की ओर ले जाता है।
2. आत्म-सम्मान: पदक नहीं, एक प्रक्रिया
"आत्म-सम्मान कोई पदक नहीं है, जिसे कोई और दे।" यह पंक्ति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। पदक 'उपलब्धि' का प्रतीक है, जबकि आत्म-सम्मान 'अस्तित्व' का।
पदक (बाहरी): यह दूसरों द्वारा तय की गई शर्तों पर मिलता है।
आत्म-सम्मान (आंतरिक): यह एक आत्म-निर्णय है। यह हमारी नैतिकता और मूल्यों के प्रति हमारी वफादारी है।
3. गरिमा और विपरीत परिस्थितियाँ
मनोविज्ञानी विक्टर फ्रैंकल ने कहा था कि मनुष्य से सब कुछ छीना जा सकता है, सिवाय उसकी 'अंतिम स्वतंत्रता' के—यानी किसी भी परिस्थिति में अपना रवैया चुनने की आजादी। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, अपनी 'गरिमा' से समझौता न करना ही असली शक्ति है। जब हम अपनी नजरों में गिरकर दुनिया का सम्मान पाने की कोशिश करते हैं, तो हम मनोवैज्ञानिक रूप से खोखले हो जाते हैं।
सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो एक स्वाभिमानी व्यक्ति समाज के लिए अधिक उपयोगी होता है, क्योंकि वह भीड़ के पीछे नहीं चलता, बल्कि अपने सिद्धांतों पर अडिग रहता है। आत्म-सम्मान का अर्थ अहंकार नहीं, बल्कि अपनी स्व-छवि के प्रति ईमानदारी है।
आत्म-सम्मान एक चुनाव है, जो हम हर सुबह उठकर खुद के लिए करते हैं। यह दुनिया को हमारे प्रति व्यवहार सिखाने का पहला कदम है।

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