शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की केंद्रीय भूमिका।

   


​1. ग्रामीण शिक्षा की दयनीय स्थिति:

 एक अकेला शिक्षक कैसे विभिन्न कक्षाओं, विषयों और आयु समूहों को समान गुणवत्ता के साथ पढ़ा सकता है? यह स्थिति न केवल शिक्षक के लिए अमानवीय है, बल्कि यह सीधे तौर पर बच्चों के संवैधानिक शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन भी है। यह शिक्षकों की 'समर्पित शिक्षण सामर्थ्य' को कम करता है।

​2. प्रशासनिक बोझ: मूल कार्य से भटकाव

​  शिक्षकों को उनके मूल कार्य से भटकाकर सतत प्रशासनिक भार का साधन बनाया जाता रहेगा, तो शिक्षा व्यवस्था भी सही दिशा में आगे नहीं बढ़ पाएगी।

शिक्षकों को जनगणना, चुनाव ड्यूटी, विभिन्न सरकारी योजनाओं का सर्वेक्षण और अन्य गैर-शैक्षणिक कार्य सौंपे जाते हैं। यह न केवल शिक्षण के समय को नष्ट करता है, बल्कि शिक्षक के मनोबल को भी तोड़ता है। शिक्षक एक प्रशासक या क्लर्क नहीं है; उनका प्राथमिक कार्य शिक्षण और छात्र विकास है। जब देश अपने सर्वश्रेष्ठ दिमागों को कागजी कार्रवाई में उलझाता है, तो गुणवत्ता-आधारित शिक्षा एक दूर का सपना बन जाती है।

​3. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की आधारशिला: यदि किसी राष्ट्र को गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था स्थापित करनी होती है, तो सर्वप्रथम उसे शिक्षक का सम्मान, सुरक्षा और कार्य संतुलन सुनिश्चित करना होता है।

वर्तमान परिदृश्य में, शिक्षकों को अत्यधिक दबाव, कम वेतन (कई स्थानों पर), और समाज व प्रशासन दोनों से अपर्याप्त सम्मान का सामना करना पड़ता है। एक ऐसे पेशे में जहां व्यक्ति को सम्मान और सुरक्षा नहीं मिलती, वहां प्रतिभा आकर्षित नहीं होती। कार्य संतुलन के अभाव में, शिक्षक न तो अपनी कक्षा के लिए नवीन और रचनात्मक शिक्षण विधियों पर ध्यान केंद्रित कर पाता है, और न ही व्यावसायिक विकास कर पाता है। शिक्षा की गुणवत्ता सीधे तौर पर शिक्षक की संतुष्टि और सक्षमता पर निर्भर करती है।

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