भाषा: धरोहर, संकट और साहित्य का स्पंदन !

   


​प्रकृति और मानव का संबंध भाषा के माध्यम से गहराता आया है। एक ओर जहाँ आधुनिक तकनीक कृत्रिम मेधा (AI) के सहारे जानवरों की भाषाओं को समझने का प्रयास कर रही है, वहीं दूसरी ओर, विश्व भर में पारंपरिक भाषाएँ—मानव सभ्यता की सदियों पुरानी धरोहर—विलुप्ति के गंभीर संकट का सामना कर रही हैं। यह एक विडंबना है कि जिस समय हम भाषा की सीमाओं को तोड़कर पशु-पक्षियों के अत्यंत संवेदनशील संकेतों को जानने की ओर बढ़ रहे हैं, उसी समय हमारी अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के माध्यम सिमटते जा रहे हैं।

राजस्थानी भाषा में मौसम के लिए प्रयुक्त शब्द इसकी गहराई को दर्शाते हैं। चैत्र, वैशाख, और जेठ माह की गरजने वाली बारिश को वहाँ 'चड़पड़वाट', 'हलौतियाँ', या 'जेठ माह की बारिश' जैसे विशिष्ट नामों से पुकारा जाता है। वहीं, आषाढ़ से फाल्गुन तक की बारिश के अलग-अलग संबोधनों में सरवात (आषाढ़), लेर (सावन), झड़ी (भाद्रपद), मोती (कार्तिक), कटक (कार्तिक), फाँरसरौ (मार्गशीर्ष), पावट (पोष), मावट (माघ), और फटकार (फाल्गुन की बारिश) जैसे नाम शामिल हैं।यहाँ ऊँट के लिए ही 270 से अधिक पर्यायवाची शब्द हैं, जो राजस्थानी संस्कृति में पशुधन के महत्व और भाषा की समृद्धि को प्रमाणित करते हैं।


​मगही: मगध क्षेत्र की यह भाषा प्राचीन भारत के इतिहास से जुड़ी है। मगही के शब्द सादगी और मिठास से भरे होते हैं। इसका साहित्य लोकगीतों, अनुष्ठानों और प्रकृति प्रेम पर आधारित है।

​भोजपुरी: मगही की तरह ही, भोजपुरी भी एक विशाल जनसंख्या के विचारों और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है। भोजपुरी के शब्दों में एक विशेष प्रकार का ओज और ठहराव होता है। बिहार के संदर्भ में, इन भाषाओं का साहित्य वहाँ के श्रम, संघर्ष, और त्योहारों जैसे छठ को दर्शाता है। विदेशों में मजदूरों के पलायन और उनके अनुभवों पर आधारित 'बिरहा' जैसे गीतों ने भोजपुरी को विश्वव्यापी पहचान दी है। ब्रिटिश शासनकाल की शिक्षा पद्धति का उद्देश्य भारतीयों को उनके 'साहित्यिक गौरव से वंचित' करना था। आजादी के बाद भी, 'औपनिवेशिक ताकतें' ऐसी नीतियों का हथकंडा अपनाती रहीं, जिसने सामुदायिक अभिव्यक्ति को कमजोर किया।

​पिछले तीन दशकों में एक भाषा प्रति दो सप्ताह की दर से विलुप्ति की खबरें आ रही हैं। भाषाविदों का मानना है कि यदि यही प्रवृत्ति रही, तो इस सदी के अंत तक दुनिया की कई बोलियाँ मौखिक अभिव्यक्ति से हमेशा के लिए दूर हो जाएँगी। यह केवल भाषाओं का नहीं, बल्कि उनसे जुड़ी ज्ञान-परंपराओं, लोक-कथाओं, और एक विशिष्ट जीवन-शैली का अंत होगा। यूनेस्को ने भी इन भाषाओं के संकट को 'एटलस ऑफ द वर्ल्ड्स लैंग्वेजेज इन डेंजर' के माध्यम से सामने रखा है।

​भाषा हमारी पहचान है। यह हमारे पूर्वजों के अनुभव और आने वाली पीढ़ियों के सपनों को जोड़ने वाली कड़ी है। इसके संरक्षण का प्रयास केवल भाषाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वाभिमान की रक्षा है।

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