कड़ाके की ठंड में बुलडोजर चलाना घोर निर्दयता !
क्या सरकार का धर्म सिर्फ अतिक्रमण हटाना है, बेघर को आश्रय देना नहीं?
यह कैसा न्याय है, जो गरीबों को कड़ाके की शीतलहर में बेघर कर खुले आसमान के नीचे छोड़ देता है? यह सवाल आज बिहार सहित देश के कई हिस्सों में उस व्यवस्था से पूछा जा रहा है, जिसने न्यायालय के आदेश का पालन करते हुए अतिक्रमण पर बुलडोजर तो चलाया, लेकिन उन बेघर हुए परिवारों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की। यह कार्रवाई न केवल मानवीय संवेदनशीलता के विरुद्ध है, बल्कि एक कल्याणकारी लोकतांत्रिक राष्ट्र के मूल सिद्धांतों पर भी सीधा प्रहार है।
सरकारी वादे बनाम जमीनी हकीकत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने 2022 तक 'सभी को आवास' देने का बड़ा लक्ष्य रखा था। आज 2025 आ चुका है, लेकिन गरीबों के पास पक्के घर तो दूर, सिर छुपाने का अस्थायी ठिकाना भी छीना जा रहा है। यह घोषणा और जमीनी हकीकत के बीच की विशाल खाई को दर्शाता है।
यदि गरीब भूमिहीन लोगों ने किसी तरह अपने लिए आशियाना बनाने की कोशिश की, तो उन्हें 'निर्दयी' सरकार और 'तुगलकी फरमान' का शिकार होना पड़ा। क्या सरकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह अतिक्रमण हटाने से पहले, बेघर होने वाले गरीब-गुरबों के लिए तत्काल अस्थायी या स्थायी आवास का बंदोबस्त करे?
जब अतिक्रमण हो रहा था, सरकार कहां थी?
यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है कि जब वर्षों से ये अतिक्रमण हो रहे थे, तब स्थानीय प्रशासन और सरकार कहाँ सोई हुई थी? क्या यह सरकारी तंत्र की घोर लापरवाही नहीं है?
यदि बिहार सरकार अपने वादे के अनुसार हर भूमिहीन परिवार को 3 डिसमिल जमीन की पर्ची देती,
और यदि केंद्र सरकार ने पर्याप्त इंदिरा आवास/प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मकान बनाए होते,
तो आज ये लोग अतिक्रमण करने के लिए मजबूर नहीं होते।
पूंजीपतियों को ₹1 प्रति एकड़ की दर से जमीन लीज पर देने वाली सरकार की अंतरात्मा गरीबों के घर उजाड़ने में क्यों नहीं जागती? जनहित को उपेक्षित कर किया गया 'विकास' हमेशा 'विनाश' साबित होता है, और यह कार्रवाई इसका जीता जागता प्रमाण है।
निकम्मेपन की पराकाष्ठा: स्थानीय जनप्रतिनिधियों का मौन
इस दुखद घटनाक्रम में सबसे अधिक शर्मनाक व्यवहार स्थानीय जनप्रतिनिधियों का रहा है—चाहे वे विधायक हों या सांसद।
ये वही लोग हैं जो चुनाव के समय 'जनता के सेवक' होने का दावा करते हैं, लेकिन अब कड़ाके की ठंड में अपने लिए हर सुविधाओं से लैस फ्लैटों में चैन की नींद सो रहे हैं। यदि उनमें थोड़ी सी भी शर्म या हया होती, तो वे जनता का दुख समझते हुए, अपनी सुख-सुविधाओं का अस्थायी बहिष्कार करते और गरीबों के लिए सड़कों पर उतरते।
लेकिन यह साबित हो चुका है कि ये लोग जनता की सेवा के लिए नहीं, बल्कि सुख-सुविधा भोगने के लिए ही बने हैं। इनकी यह निकम्मापन अस्वीकार्य है।
याद रखें! चुनाव के समय यही सरकारें ₹10 हजार की जगह ₹20 हजार देकर वोट खरीदने की जुगत करेंगी। इसलिए, अब समय आ गया है कि जनता ऐसे संवेदनहीन जनप्रतिनिधियों को उनके मोहल्ले और गाँवों में घुसने न दे।
हमारी मांग:
सरकार को तत्काल इस मानवीय त्रासदी पर ध्यान देना चाहिए और बुलडोजर से बेघर हुए सभी परिवारों के लिए शीघ्रता से अस्थायी आश्रय और भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए। एक लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य में, शीतलहर में आशियाना छीनना अक्षम्य अपराध है!

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