सत्ता की ढाल बनता मीडिया: लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का ढहता स्वरूप !
मीडिया को सरकार का 'पीआर (PR) एजेंट' नहीं, बल्कि 'वॉचडॉग' होना चाहिए।
लोकतंत्र के तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—की निगरानी के लिए चौथे स्तंभ के रूप में 'मीडिया' की कल्पना की गई थी। मीडिया का धर्म था सत्ता से कठिन सवाल पूछना और जनता की आवाज़ बनना। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सूचना देने के बजाय 'नैरेटिव' (कथा) गढ़ने में लगा है। जब मीडिया जनता के मुद्दों को उठाने के बजाय सरकार के राजनीतिक हितों की 'जुगलबंदी' करने लगे, तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए एक चेतावनी है।
जुगलबंदी या जवाबदेही से बचाव?
जब हम 'डबल इंजन' जैसी राजनीतिक मार्केटिंग की शब्दावली का उपयोग समाचारों में करते हैं, तो हम अनजाने में (या जानबूझकर) सत्ता के प्रवक्ता बन जाते हैं।
संवेदनशीलता का अभाव: बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के दोषी को जमानत मिलने पर मीडिया का ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि पीड़ित को न्याय कैसे मिले या व्यवस्था में क्या खामियां हैं। इसके उलट, जब मीडिया यह चिंता करने लगे कि इस फैसले से सरकार 'रक्षात्मक' (defensive) हो गई है, तो वह जनता के प्रति नहीं, बल्कि सत्ता के प्रति अपनी वफादारी दिखा रहा होता है।
मुद्दों का सरलीकरण: प्रदूषण, जो लाखों लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा है, उसे राजनीतिक हार-जीत या 'कथा' के रूप में पेश करना जनहित के साथ खिलवाड़ है।
जनता और लोकतंत्र पर प्रभाव
मीडिया और सरकार के बीच यह बढ़ती नज़दीकी एक 'सूचना के अंधेरे' (Information Blackout) को जन्म देती है। इसके परिणाम भयावह हो सकते हैं:
जवाबदेही का अंत: यदि मीडिया सवाल पूछना बंद कर दे, तो सरकारें अपनी विफलताओं के प्रति लापरवाह हो जाती हैं।
जनता का भ्रमित होना: जब समाचारों में तथ्यों से ज्यादा 'राजनीतिक दृष्टिकोण' परोसा जाता है, तो आम नागरिक असली समस्या और राजनीतिक प्रोपेगेंडा के बीच फर्क नहीं कर पाता।
न्याय की उपेक्षा: अपराध और अपराधियों से जुड़े मामलों में जब सरकार की छवि को बचाने का प्रयास प्राथमिक हो जाता है, तो न्याय की गुहार लगाने वाली पीड़ित आवाजें दब जाती हैं।
एक जीवंत लोकतंत्र के लिए मीडिया का स्वतंत्र और निष्पक्ष होना अनिवार्य है। यदि मीडिया सत्ता को आईना दिखाने के बजाय उसके लिए कवच का काम करने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपनी नींव खो चुका है। जनता को भी अब केवल सूचना का उपभोक्ता नहीं, बल्कि एक जागरूक आलोचक बनना होगा, जो यह पहचान सके कि खबर कहाँ खत्म हो रही है और प्रोपेगेंडा कहाँ से शुरू हो रहा है।

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