विदेशी ज़मीन पर घटता मान: क्या यही है 'विश्वगुरु' की विदेश नीति?

   


​हाल के घटनाक्रम एक ऐसे विरोधाभास की ओर इशारा करते हैं जो भारत की वैश्विक साख और घरेलू यथार्थ के बीच की बढ़ती खाई को दर्शाता है। एक ओर जहाँ भारतीय नेतृत्व अक्सर 'विश्वगुरु' बनने और विश्व में भारत का 'डंका बजने' का दावा करता है, वहीं कनाडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे प्रमुख देशों में भारतीय छात्रों के लिए वीजा नियमों का लगातार सख्त होना और अमेरिका से भारतीय प्रवासियों को हथकड़ियों में जकड़कर वापस भेजे जाने की खबरें, इस दावे पर गंभीर सवाल खड़े करती  है ।

मित्र देशों की सख़्ती: "डंका" या "झटका"?

 अमेरिका की देखा-देखी कनाडा ने छात्र वीजा पर सख़्ती की है, जहाँ वीजा रद्द होने की दर 32\% से बढ़कर 75\% तक पहुँच गई है और नए प्रवेश में 40\% की गिरावट आई है। इसी तरह, ब्रिटेन ने 2025 से वीजा नवीनीकरण में परिवार को साथ लाने पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे कई भारतीयों को ब्रिटेन छोड़ने पर मज़बूर होना पड़ा है। ऑस्ट्रेलिया ने भी नई प्रवासन नीति लागू कर छात्र वीजा को कठिन बना दिया है।

​यह सख़्ती सिर्फ़ एक प्रशासनिक बदलाव नहीं है; यह एक गहन कूटनीतिक असफलता का सूचक है।

​कूटनीतिक प्रतिफल  का अभाव: जब भारत इन देशों के साथ सामरिक, आर्थिक और व्यापारिक साझेदारी को मज़बूत करने का दावा करता है, तब इन देशों द्वारा भारतीय नागरिकों के प्रति एकतरफा सख़्ती दिखाता है कि भारत की विदेश नीति शायद इन 'मित्रों' के फैसलों को प्रभावित करने में अक्षम रही है।

​मानवीय और आर्थिक क्षति: लाखों भारतीय छात्र अपनी शिक्षा और बेहतर भविष्य के लिए लाखों रुपये निवेश करते हैं। वीजा नियमों में अचानक और कठोर बदलाव उनके भविष्य को अनिश्चित बनाता है, साथ ही देश के भीतर से प्रतिभा पलायन की समस्या को भी जटिल करता है।

 अमेरिकी तल्ख टिप्पणी: "कैदी" बना कर भेजे गए भारतीय

​सबसे अधिक चिंताजनक और शर्मनाक घटना अमेरिका द्वारा अवैध प्रवासियों को हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़कर सैन्य विमानों (जैसे C-17) से वापस भारत भेजा जाना है। ये लोग, भले ही अवैध रूप से अमेरिका में दाखिल हुए हों, वे भारतीय नागरिक हैं और उनका यह अपमानजनक निर्वासन भारत के सम्मान पर एक सीधी चोट है।

​एक ऐसे समय में जब भारत और अमेरिका एक 'व्यापक वैश्विक सामरिक साझेदारी' का जश्न मनाते हैं, तब अमेरिका का यह कृत्य यह दर्शाता है कि:

​राष्ट्रीय हित सर्वोपरि, संबंध गौण: अमेरिका अपने घरेलू प्रवासन कानूनों को लागू करने में ज़रा भी संकोच नहीं कर रहा, भले ही इससे भारत के साथ उसके द्विपक्षीय संबंधों की 'गर्मजोशी' प्रभावित हो।

​भारत की कमज़ोर मोलभाव की शक्ति: यदि 'डंका' सचमुच बज रहा होता, तो भारत कम से कम अपने नागरिकों के साथ किए जा रहे इस अमानवीय व्यवहार पर तीखी प्रतिक्रिया देता और उनके सम्मानजनक निर्वासन की व्यवस्था सुनिश्चित कराता। विदेश मंत्री द्वारा इसे 'नियमित प्रक्रिया' बताना, इस गंभीर अपमान को हल्का करने जैसा है, जो दर्शाता है कि या तो भारत में इस मुद्दे की गंभीरता को अनदेखा किया जा रहा है, या फिर अमेरिका के सामने भारत की आवाज़ प्रभावी नहीं है।

​'कैदी' का दर्जा: अवैध प्रवासी अपराध की दुनिया के दुर्दांत अपराधी नहीं हैं। उन्हें हथकड़ियों में जकड़ना उन्हें कैदी का दर्जा देने जैसा है, जो एक संप्रभु राष्ट्र के नागरिक के प्रति घोर अनादर है।

 डंके की सच्चाई

​विदेश नीति का असली लिटमस टेस्ट यह नहीं है कि शिखर सम्मेलनों में कितनी बार गले मिला जाता है, बल्कि यह है कि जब किसी राष्ट्र के साधारण नागरिक पर संकट आता है तो उसकी सरकार उसकी सुरक्षा और सम्मान की कितनी मज़बूती से गारंटी देती है।

​छात्रों पर सख़्ती और प्रवासियों के साथ कैदियों जैसा अमानवीय व्यवहार, इन दोनों घटनाक्रमों को मिलाकर देखने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि वैश्विक मंच पर भारत की वास्तविक स्थिति वैसी नहीं है जैसा प्रचारित किया जाता है। यदि एक 'विश्वगुरु' या 'डंका बजाने वाला' राष्ट्र अपने नागरिकों के साथ हो रहे इस तरह के अपमान को चुपचाप स्वीकार कर लेता है, तो यह स्पष्ट संकेत है कि भारत की विदेश नीति में सुधार की नहीं, बल्कि आत्म-मूल्यांकन और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।

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