आम आदमी की व्यथा ! ( कविता ) -प्रो प्रसिद्ध कुमार।
मैं आम आदमी, मेरी विसात क्या है?
न दो जून की रोटी, न न्याय, न सम्मान,
अधिकार की बात तो बस दूर की कथा है।
हाँ, जब खोज हो अपराधी की, तो नाम मेरा ही मिल जाता,
जेल की दीवारों का शोभा बनकर, जीवन कट जाता।
खेतों-खलिहानों में, सड़कों के किनारे,
फुटपाथों पर, झोपड़ियों में, या खुले आसमान के नीचे,
यही मेरा बसेरा, यही मेरी पहचान,
यही मेरी हस्ती, यही है मेरी औकात!
गृहस्थी के बोझ तले, कमर मेरी झुक गई,
देह पर न मांस, बचा बस कंकालों का साया।
नग्न बदन, या मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़े,
कोई पलट कर नहीं देखता मेरी ओर,
अगर कोई देखे भी, तो घृणा, क्षोभ, तिरस्कार से,
न कोई आकर्षण, न किसी की चाहत,
बेवजह सहता हूँ डाँट, रौब और अपमान।
सहज ही कोई ठग कर चला जाता,
कभी खाता हूँ, कभी भूखे पेट सो जाता,
ऊपरवाले का नाम लेकर, हृदय फिर भी मगन रहता,
इसे विधाता का भाग्य समझकर, सब कुछ सह लेता हूँ।
मगर मेरी पूछ एक दिन होती है,
जब वोट का दिन आता है, बांछें खिल जाती हैं।
नेता जब अपने धर्म, जाति, कुल-वंश से मिल जाते हैं,
फिर गुण-अवगुण की क्या परवाह?
दुर्दांत, अपराधी, चोर, झिलक्ट, कोई भी चलेगा,
उसके सर पर ताज होगा, डीएनए जो मिल गया!
हमें और क्या चाहिए, जब हम खुश हैं,
देखकर उनके गालों की लाली और रौनक।
कोई इन्हें बुरा कहे तो हम लड़ जाते हैं, अड़ जाते हैं।
मैं अपनी दशा के लिए खुद जिम्मेदार हूँ।
मैं आम आदमी हूँ, और यही मेरी नियति है।

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