राजनीति की शुचिता, भाई, भतीजा,पिता! प्रसिद्ध यादव के साथ शेयर करें।
बाबूचक, पटना।
आंख बंद डिब्बा गोल!
आखिर राजनीति किसकी?
यह एक अहम सवाल है। देश,राज्य,जनता के लिये या सत्ता के लिये,सेवा के लिये या मेवा के लिये! जब हम इसका उत्तर ढूंढते हैं तब बहुत निराश हाथ लगती है।अपवादों को छोड़कर अब राजनीति सत्ता धन,बल,सत्ता के केंद्र बन गया है।यही इसका चाल चरित्र बनकर रह गया है।परिवारवाद, राजनीति का अपराधीकरण पुरानी बात हो गयी या अब यह चलन में आ गया है।फर्क है तब बस इतना की किसके दाग ज्यादा हैं या अच्छे हैं,दागदार सभी पार्टी है।नैतिकता, नियत,नीति लोकलुभावन शब्द बनकर रह गये हैं।शिक्षित, युवा,आधी आबादी जैसे नेतृत्व को आगे आना चाहिए, लेकिन इसमें भी कोई अदृश्य शक्ति काम करती है।राजनीति में आकर्षण क्यों है?यह बताने की जरूरत नही है।राजनेताओं के ठाठ, रौब से समझ आ जाती है ।राजनीति अब मध्य वर्गीय, निम्न वर्गीय लोगों के बुते के चीज नही रही।चुनाव में धनवर्षा होती है,जो ज्यादा बरसाए,अधिक वोट पाये।जो,जितना दबंग ,वो उतना लोकप्रिय! जन-जन के प्यारे,धरती पुत्र,चौकीदार आदि शब्दों से अलंकृत होते हैं।राजनीति करते -करते कितने समाजवादी, लोहिया वादी,गांधीवादी,नेहरूवादी, अम्बेडकरवादी आदि इहलोक से उहलोक सिधार गये, मिला क्या? गुमनामी जीवन।चुनाव में टिकट के लिये अच्छे अच्छे को पसीने छूट गए,बायो डाटा फट गए,लेकिन किस्मत के ताले नही खुले।यही कारण है की अब राजनीति दलों के कार्यकर्ता नही मिलते हैं,मिलते हैं तो बस टिकटार्थी!और यही अर्थी निकाल रहे हैं राजनीति की!राजनीति दलों में खूब पूछ है शरणार्थियों की।एक दम जान से भी प्यारा।अब गठबंधन नही लठबंधन होता है,जो जितना बड़ा लठैत ,उतना उसकी रौब।ये लठैत कितनों के पानी पिला के छोड़ दिया है।कितनों के समीकरण ऐसा बिगड़ा की उसकी स्मिता ही मिट गई।प्रसिद्ध यादव।
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