वीर कुँअर सिंह ,अली बंधु!बीपीएससी सीरीज 14 H/प्रसिद्ध यादव

 


  बिहार मे सबसे पहले 12 जून 1857 को देवधर ज़िले के रोहिणी नामक जगह पर अमानत अली, सलामत अली और शेख़ हारुन बग़ावत कर अंग्रेज़ अफ़सर को मार देते हैं और इस जुर्म के लिए इन्हे 16 जून 1857 को आम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी जाती है. और इस तरह बिहार मे क्रांति की शुरुआत होती है…

  भोजपुर (आरा) जिले के जगदीशपुर रियासत के इस योद्धा ने जाति-धर्म से परे होकर अपने देश सेवा के लिए अपनी रियासत को ही दांव पर लगा दिया। कभी इन्होंने जाति और धर्म को अपने बीच दीवार नहीं बनने दिया।

 बिहार के आरा की धरमन बाई। पेशे से तवायफ धरमन बाई को महान स्वतंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह से अकूत प्रेम था। अपने प्रेम की खातिर इस विरांगना ने अपनी शहादत दे दी थी।

कहा जाता है कि धरमन बाई और करमन बाई दो बहने थीं, जो आरा, बिहार की तवायफ थी। बात 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय की है। इन दोनों का मुजरा काफी प्रसिद्ध था, जिसे देखने के लिए वीर कुंवर सिंह भी जाते थे। उसी दौरान इन दोनों से उनकी आंखे चार हुई। बाबू कुंवर सिंह इन दोनों से बेपनाह मोहब्बत करने लगे, लेकिन धरमन को वो अपने ज्यादा करीब पाते थे, शायद इसी वजह से उन्होंने धरमन से शादी कर ली।

यहां तक कहा जाता है कि बेपनाह मोहब्बत का ही नतीजा था कि करमन बाई के नाम पर कुंवर सिंह ने करमन टोला बसा डाला, जो आज भी विद्यमान है वहीं धरमन बाई के नाम पर धरमन चौक के अलावा आरा और जगदीशपुर में धरमन के नाम पर मस्जिद का निर्माण करवाया।

कुछ सैनिक टुकड़ियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लेने निकल पड़े ।आरा से युद्ध की हुंकार भरने वाले इस योद्धा ने अपने उम्र के आखिरी पड़ाव पर ऐसी रार मचाई की देश में अंग्रेजों के बीच दहशत का माहौल बन गया। इस योद्धा के साथ एक जो सबसे बड़ी बात है वो ये कि बाबू साहब बिना थके हारे 9 माह तक लगातार युद्ध लड़ते रहे। जिस इलाके में गए उस रियासत के राजाओं को सहयोग किया और उनका सहयोग लिया भी, जिसमें झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहेब जैसे कई बड़े राजाओं के साथ होकर अंग्रेजों से युद्ध लड़ते हुए आग बढ़ते रहे। कुछ सैनिकों के साथ युद्ध लड़ने वाला रण बांकुर की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि गुरिल्ला युद्ध ही इनका सबसे बड़ा हथियार था। जब अंग्रेज सेना देश के गद्दारों के साथ हमला करने के लिए आगे बढ़ती उस वक्त बाबू साहब के सैनिक पेड़ों पर चढ़कर छुप जाते थे और जैसे ही अंग्रेजी सेना आगे बढ़ती वो उन पर टूट पड़ते थे जिससे अंग्रेजी सैनिक इनके शक्ति का अंदाजा नहीं लगा पाते थे और भाग खड़े होते थे, मारे जाते थे। 

23 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह युद्ध के मैदान से लौट रहे थे। उसी क्रम में गंगा पार करते हुए अंग्रेजों ने उन पर तोप का गोला दाग दिया, जिसमें उनका हाथ जख्मी हो गया। उन्होंने तनिक भी देर नहीं किया और अपनी तलवार निकालकर अपने शरीर से हाथ को अलग कर गंगा मईया को सुपुर्द कर दिया। कटे हुए हाथ के बूते ही इन्होंने पुनः अंग्रेजों से अपनी रियासत पर फिर से फतह कर लिया। एक तरफ जीत की खुशी तो दूसरी तरफ 26 अप्रैल 1858 को बाबू साहब अपने जिंदगी की जंग हार गए। उसी समय से इनकी वीरगाथा को 26 अप्रैल को विजयोत्सव के रुप में मनाया जाने लगा। 


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