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बदलाव: प्रगति की एक सुंदर यात्रा !

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    ​बदलाव की रफ्तार, उसकी चाल, दिशा और मकसद को समझना भले ही कभी-कभी पेचीदा लगे, लेकिन यही जीवन की गतिशीलता है। कुछ सकारात्मक बदलाव पल भर में हमारे जीवन को रोशन कर देते हैं, जबकि कुछ बड़े बदलावों के लिए हमें धैर्य के साथ निरंतर प्रयास करना पड़ता है। ​यह सच है कि हर किसी की प्रगति की यात्रा अलग होती है। जहाँ एक कार चलाने वाला व्यक्ति कुछ वर्षों की मेहनत से हवाई जहाज के सफर तक पहुँच सकता है, वहीं पैदल चलने वाले मुसाफिर के लिए एक सुरक्षित वाहन मिलना भी बड़ी सफलता हो सकती है। ​महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम कितनी तेजी से बदल रहे हैं, बल्कि यह है कि हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं। हर छोटा कदम, चाहे वह कितना भी धीमा क्यों न हो, हमें एक बेहतर कल की ओर ले जाता है। जब हम अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करते हुए सकारात्मक कर्म करते हैं, तो धीरे-धीरे सुरक्षित और सुखद भविष्य के सारे रास्ते खुद-ब-खुद खुलने लगते हैं। ​"बदलाव का असली मकसद केवल गंतव्य तक पहुँचना नहीं, बल्कि उस सफर के दौरान खुद को बेहतर बनाना है।" ​मैंने इसमें क्या बदलाव किए हैं? ​हताशा को आशा में बदला: 'मुश्किल' पर जोर था, वह...

​महंगा सफर: सुविधाओं के अभाव में बढ़ता वित्तीय बोझ

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    ​भारतीय रेल, जिसे देश की 'जीवन रेखा' कहा जाता है, आज अपने सबसे विरोधाभासी दौर से गुजर रही है। एक ओर सरकार इसे विश्वस्तरीय और 'अंतरराष्ट्रीय मानकों' के अनुरूप बनाने का दावा करती है, वहीं दूसरी ओर आम यात्री के लिए रेल का सफर आर्थिक और शारीरिक, दोनों मोर्चों पर एक 'दुस्वप्न' बनता जा रहा है। ​किराया वृद्धि: राजस्व की भूख या सेवा का संकल्प? ​हाल ही में भारतीय रेलवे द्वारा यात्री किराए में की गई वृद्धि—जो विशेष रूप से 215 किलोमीटर से अधिक की यात्रा पर लागू है—भले ही प्रति किलोमीटर एक से दो पैसे की मामूली बढ़ोतरी दिखे, लेकिन इसका व्यापक प्रभाव चौंकाने वाला है। सरकार को इससे अगले तीन महीनों में लगभग 600 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व मिलने की उम्मीद है। यह स्पष्ट करता है कि सरकार बजट जैसे औपचारिक मौकों का इंतजार किए बिना, जब चाहे यात्री की जेब पर बोझ डालने के लिए स्वतंत्र है। सामान के वजन पर सीमा और अतिरिक्त शुल्क जैसे नियम इसी 'राजस्व वसूली' की कड़ी का हिस्सा हैं। ​जमीनी हकीकत और सरकारी दावे ​टिकटों की मारामारी: आज एक आम आदमी के लिए कन्फर्म टिकट मिलना किसी ...

दुख और संघर्ष: व्यक्तित्व को निखारने वाली कसौटी !

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    ​जीवन का मार्ग हमेशा समतल नहीं होता; इसमें उतार-चढ़ाव, धूप और छाँव का आना-जाना लगा रहता है। अक्सर हम सुख की कामना करते हैं और दुख से दूर भागना चाहते हैं, —"दुख व्यक्ति को मांजता है।" जिस प्रकार सोने को चमकने के लिए आग में तपना पड़ता है, उसी प्रकार जीवन के संघर्ष हमारे व्यक्तित्व को और अधिक प्रखर और मजबूत बनाते हैं। ​1. आत्म-मंथन और सुधार का अवसर ​जब सब कुछ ठीक चल रहा होता है, तो हम अक्सर ठहरकर अपने बारे में नहीं सोचते। लेकिन दुख की घड़ी हमें आत्म-मंथन करने पर मजबूर करती है। यह हमें हमारे भीतर की उन कमियों से परिचित कराती है जिन्हें हम अनदेखा कर रहे थे। यह एक नए अध्याय की शुरुआत है, जहाँ हम पहले से अधिक समझदार और अनुभवी होकर उभरते हैं। ​2. सुख की सच्ची पहचान ​अंधेरे के बिना प्रकाश की कोई महत्ता नहीं होती। यदि जीवन में कभी दुख न आए, तो हम सुख के आनंद को कभी महसूस ही नहीं कर पाएंगे। दुख हमें कृतज्ञता (Gratitude) सिखाता है। यह हमें उन छोटी-छोटी खुशियों की कद्र करना सिखाता है जिन्हें हम अक्सर साधारण मानकर भूल जाते हैं। ​3. भविष्य की नई राहें ​अक्सर एक दरवाजा बंद होने पर ही हम ...

​उच्च शिक्षा में जवाबदेही का नया सवेरा: पारदर्शिता से सुधरेगी शैक्षणिक व्यवस्था !

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    ​डिजिटल निगरानी और अनुशासन: अब पढ़ाई में नहीं होगी 'फांकी' ! मैंने इस साल जितना जिस तारीख में क्लास में पढ़ाया ,उसे चैप्टरवैज डिजिटली लिख रखा है ताकि यह स्मरण में रहे और पूरे सिलेबस को पूरा किया है !-प्रो प्रसिद्ध कुमार। ​बिहार के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए राज्यपाल एवं कुलाधिपति द्वारा उठाया गया कदम एक दूरगामी और ऐतिहासिक निर्णय है। कक्षाओं के विवरण को प्रतिदिन वेबसाइट पर अपलोड करने की अनिवार्यता से न केवल व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी, बल्कि यह शिक्षकों और छात्रों के बीच एक सक्रिय शैक्षणिक वातावरण भी तैयार करेगा। ​अक्सर यह देखा गया है कि समुचित निगरानी के अभाव में कक्षाएं अनियमित हो जाती हैं, जिसका सीधा असर छात्रों के भविष्य पर पड़ता है। अब डिजिटल मॉनिटरिंग के माध्यम से यह सुनिश्चित होगा कि पाठ्यक्रम समय पर पूरा हो। जब प्राध्यापक और छात्र दोनों की उपस्थिति और सक्रियता ट्रैक होगी, तो "फांकी" मारने की प्रवृत्ति स्वतः समाप्त हो जाएगी और कैंपस में फिर से पढ़ाई का माहौल लौटेगा। ​सिक्के का दूसरा पहलू: वित्त रहित कॉलेजों की समस्याओं ...

इन्डिका (Indica) एक ऐतिहासिक, भोगौलिक , पुरातत्व के अद्भुत ज्ञान की पुस्तक !

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   ए डीप नेचुरल हिस्ट्री ऑफ द इंडियन सबकॉन्टिनेंट (A Deep Natural History of the Indian Subcontinent) ​यह पुस्तक भारत के उस इतिहास को बताती है जो इंसानों के आने से बहुत पहले का है। यह उपमहाद्वीप के बनने की कहानी है—कैसे भारत कभी अंटार्कटिका से जुड़ा था, कैसे यह विशाल महासागरों को पार कर एशिया से टकराया और हिमालय का जन्म हुआ। लेखक ने इसमें जीवाश्मों (fossils), लुप्त हो चुके डायनासोरों, प्राचीन पौधों और उन ज्वालामुखी विस्फोटों का वर्णन किया है जिन्होंने भारत की वर्तमान भौगोलिक स्थिति को आकार दिया। यह केवल विज्ञान की किताब नहीं, बल्कि भारत की भूमि की एक रोमांचक जीवनी है। ​उपयोगिता और मूल्य ​ज्ञानवर्धक: यह उन लोगों के लिए अत्यंत उपयोगी है जो भूविज्ञान (Geology), पुरातत्व और प्रकृति में रुचि रखते हैं। ​सरल भाषा: वैज्ञानिक विषयों पर आधारित होने के बावजूद, इसकी भाषा और समझाने का तरीका बहुत सरल और दिलचस्प है। ​दृश्यात्मक प्रस्तुति: पुस्तक में दुर्लभ चित्रों, नक्शों और रेखाचित्रों का प्रयोग किया गया है, जो इसे पढ़ने के अनुभव को जीवंत बना देते हैं। ​सांस्कृतिक महत्व: यह हमें बताती है कि...

आत्म-सम्मान - बाहरी प्रशंसा और आंतरिक गरिमा के बीच का मनोविज्ञान !

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    ​ "लोकैषणा बनाम स्व-बोध: आत्म-सम्मान की मनोवैज्ञानिक यात्रा" ! ​आधुनिक युग में, जहाँ हमारी पहचान सोशल मीडिया के 'लाइक्स' और समाज की 'स्वीकृति' पर टिकी है, यह विचार एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप की तरह है। जीवन का सबसे बड़ा संतोष यह नहीं है कि दुनिया हमें कितना सम्मान देती है, बल्कि यह है कि हम स्वयं को कितना सम्मान देते हैं। ​1. सामाजिक तुलना का मनोविज्ञान  ​सामाजिक मनोविज्ञान के अनुसार, मनुष्य अक्सर अपनी योग्यता का आकलन दूसरों से तुलना करके करता है। हम बाहरी सम्मान को अपनी सफलता का पैमाना मान लेते हैं। लेकिन यह 'बाहरी सम्मान' अस्थिर होता है। जब समाज की प्रशंसा कम होती है, तो व्यक्ति का आत्मविश्वास गिर जाता है।  हमें इस बाहरी निर्भरता से मुक्त कर 'आंतरिक नियंत्रण' की ओर ले जाता है। ​2. आत्म-सम्मान: पदक नहीं, एक प्रक्रिया ​"आत्म-सम्मान कोई पदक नहीं है, जिसे कोई और दे।" यह पंक्ति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। पदक 'उपलब्धि' का प्रतीक है, जबकि आत्म-सम्मान 'अस्तित्व' का। ​पदक (बाहरी): यह दूसरों द्वारा तय की गई...

मनरेगा और नई योजनाएँ: सुधार या राज्यों पर अतिरिक्त भार?

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    ​हाल के नीतिगत बदलावों और नई योजनाओं के क्रियान्वयन ने एक बार फिर केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय असंतुलन की बहस को जन्म दे दिया है। वर्तमान परिदृश्य में सरकार की नीतियां जनहित के दावों और व्यावहारिक धरातल के बीच झूलती नजर आ रही हैं। ​नीतिगत अस्पष्टता और मनरेगा की अनदेखी यदि सरकार के पास जनकल्याण के लिए नए प्रावधान थे, तो उन्हें मनरेगा  जैसी स्थापित योजना में ही क्यों शामिल नहीं किया गया? मनरेगा को अधिक लक्ष्यबद्ध बनाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त किया जा सकता था। नई योजनाओं को लाने की होड़ में अक्सर पुरानी और प्रभावी योजनाओं के बुनियादी ढांचे की उपेक्षा कर दी जाती है। ​पारिश्रमिक बनाम कार्यदिवस: एक अधूरा न्याय ​बढ़ती महंगाई के इस दौर में कार्यबल की सबसे प्राथमिक मांग पारिश्रमिक  में वृद्धि होनी चाहिए थी। सरकार ने वेतन बढ़ाने के बजाय काम के दिनों को 25 दिन बढ़ाकर एक "संख्यात्मक राहत" देने की कोशिश की है। लेकिन सवाल यह है कि यदि दैनिक मजदूरी ही सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पर्याप्त नहीं है, तो अधिक दिनों तक कम मजदूरी पर काम करना श्रमिकों की आर्थिक स्थिति में कितना ...