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प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की पहली महिला अध्यक्ष: संगीता बरुआ पिशारोती की प्रेरणादायक कहानी।

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    ​प्रेस क्लब ऑफ इंडिया (PCI) के 86 साल के इतिहास में रविवार, 14 दिसंबर, 2025 का दिन एक मील का पत्थर बन गया। यह वह दिन था जब अनुभवी पत्रकार संगीता बरुआ पिशारोती को PCI की पहली महिला अध्यक्ष के रूप में चुना गया। यह जीत सिर्फ एक चुनावी सफलता नहीं है, बल्कि देश की पत्रकारिता बिरादरी में महिलाओं के लिए एक नया अध्याय खोलने वाली एक महत्वपूर्ण घटना है। ​ एक ऐतिहासिक जीत के आंकड़े ​संगीता बरुआ पिशारोती ने अपने प्रतिद्वंदियों को भारी अंतर से हराकर यह पद हासिल किया। उन्हें कुल 1,019 वोट मिले, जो पत्रकार समुदाय के बीच उनके व्यापक समर्थन और विश्वसनीयता को दर्शाता है। उनके प्रतिद्वंदी अतुल मिश्रा और शर्मा अरुण को क्रमशः 129 और 89 वोट प्राप्त हुए। यह प्रचंड बहुमत न केवल उनकी व्यक्तिगत क्षमता में विश्वास दिखाता है, बल्कि भारतीय पत्रकारिता में लैंगिक समानता की बढ़ती स्वीकार्यता का भी प्रतीक है। ​ पत्रकारिता के क्षेत्र में एक लंबा सफर ​संगीता बरुआ पिशारोती की पहचान सिर्फ PCI की अध्यक्ष के तौर पर नहीं है, बल्कि एक गंभीर, जमीनी और प्रतिबद्ध पत्रकार के रूप में है, जिन्होंने तीन दशकों से अधिक सम...

संवाद: जड़ता तोड़ने वाला और साझा समझ बनाने वाला सेतु !

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    ​विमर्श की सुंदरता: जब संवाद विचारों के विवाद को पीछे छोड़ देता है ! आज के समय में, जब समाज और राजनीति में संवाद के स्थान पर विचारधारागत विवाद ने अपनी पैठ बना ली है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम संवाद के महत्व को पुनः स्थापित करें। ​संवाद केवल बात करना नहीं है; यह समझने की कला है। यह किसी विषय पर भिन्न मतों, भावनाओं और दृष्टिकोणों के बीच एक रचनात्मक पुल बनाने का कार्य करता है। ​संवाद की महत्ता को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है: ​जड़ता का भंजन: संवाद रूढ़िवादिता और स्थापित, अपरिवर्तनीय सोच की जड़ता को तोड़ता है। जब लोग अपने विचारों को खुलकर साझा करते हैं और दूसरों के विचारों को सुनते हैं, तो नई संभावनाओं और समाधानों के लिए रास्ता खुलता है। ​समस्या को 'साझा सरोकार' बनाना: विवाद किसी समस्या को 'मेरा बनाम तुम्हारा' बना देता है, जबकि संवाद इसे 'हमारा सरोकार' बनाता है। यह लोगों को समाधान की दिशा में एक साझा स्वामित्व और जिम्मेदारी का अहसास कराता है। ​सहानुभूति का विकास: एक अच्छा संवाद वक्ता और श्रोता, दोनों को एक-दूसरे के जूते में खड़े होने का मौका देता है...

शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की केंद्रीय भूमिका।

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    ​1. ग्रामीण शिक्षा की दयनीय स्थिति:  एक अकेला शिक्षक कैसे विभिन्न कक्षाओं, विषयों और आयु समूहों को समान गुणवत्ता के साथ पढ़ा सकता है? यह स्थिति न केवल शिक्षक के लिए अमानवीय है, बल्कि यह सीधे तौर पर बच्चों के संवैधानिक शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन भी है। यह शिक्षकों की 'समर्पित शिक्षण सामर्थ्य' को कम करता है। ​2. प्रशासनिक बोझ: मूल कार्य से भटकाव ​  शिक्षकों को उनके मूल कार्य से भटकाकर सतत प्रशासनिक भार का साधन बनाया जाता रहेगा, तो शिक्षा व्यवस्था भी सही दिशा में आगे नहीं बढ़ पाएगी। शिक्षकों को जनगणना, चुनाव ड्यूटी, विभिन्न सरकारी योजनाओं का सर्वेक्षण और अन्य गैर-शैक्षणिक कार्य सौंपे जाते हैं। यह न केवल शिक्षण के समय को नष्ट करता है, बल्कि शिक्षक के मनोबल को भी तोड़ता है। शिक्षक एक प्रशासक या क्लर्क नहीं है; उनका प्राथमिक कार्य शिक्षण और छात्र विकास है। जब देश अपने सर्वश्रेष्ठ दिमागों को कागजी कार्रवाई में उलझाता है, तो गुणवत्ता-आधारित शिक्षा एक दूर का सपना बन जाती है। ​3. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की आधारशिला: यदि किसी राष्ट्र को गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था स्थापित...

चीख़ती दीवारें: विकास की दौड़ में पिछड़ा इंसान !

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     यह हमारे तथाकथित 'विकसित' समाज के माथे पर लगा एक ऐसा अमिट कलंक है, जो बताता है कि गगनचुंबी इमारतों और द्रुतगामी रेलों के नीचे आज भी इंसानियत किस तरह कराह रही है। मुज़फ़्फ़रनगर (यादवपुर) से आई यह घटना, जहाँ एक पिता अपने पाँच बच्चों के साथ फाँसी के फंदे पर झूल गया, मात्र एक आत्महत्या नहीं है—यह एक ऐसी हृदय-विदारक चीख़ है जिसे सभ्य समाज ने सुनने से इंकार कर दिया। ​ग़रीबी का फंदा या सूदखोरी का शिकंजा?  40 वर्षीय अमरनाथ राम अपनी पत्नी और बच्चों के साथ उस अंतिम, भयानक निर्णय पर क्यों पहुँचे। कारण है - कर्ज और आर्थिक तंगी, जिसे आम बोलचाल में 'सूदखोर' के उत्पीड़न का नाम दिया जाता है। एक तरफ़ हम डिजिटल इंडिया, 5 ट्रिलियन इकोनॉमी की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ समाज की अंतिम पंक्ति का एक मज़दूर चंद रुपयों के कर्ज़ के बोझ तले इतना दब जाता है कि उसे अपने मासूम बच्चों की जान लेने और ख़ुद मरने में ही मुक्ति नज़र आती है। ​आज भी अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग जानवरों से बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं। ​यह विस्मय की पराकाष्ठा है कि जिस देश में संविधान ने सबको समान अधिकार दिए हैं, वहा...

प्रख्यात लोक कलाकार रामदास 'राही' का निधन !😢 सूत्रधार ने गहरी संवेदना व्यक्त की है।

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रामदास राही भोजपुरी लोक कला और गायन के एक मजबूत स्तंभ थे.. नवाब आलम  राही जी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षक थे.... प्रो प्रसिद्ध यादव  ​भिखारी ठाकुर की रंग परंपरा को जीवंत रखने और उसे आगे बढ़ाने में अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले प्रख्यात लोक कलाकार श्री रामदास 'राही' के निधन से कला जगत में गहरा शोक व्याप्त है। सूत्रधार ने उनके निधन पर गहरी संवेदना व्यक्त किया है। बिहार ठाकुर सम्मान से सम्मानित सूत्रधार के महासचिव नवाब आलम ने अपने शोक संदेश में कहा है कि ​ रामदास 'राही' भोजपुरी लोक कला और गायन के एक मजबूत स्तंभ थे, जिन्होंने भिखारी ठाकुर की नाट्य और गायन शैली को न केवल संरक्षित किया, बल्कि अपनी जीवंत प्रस्तुतियों से उसे नई पीढ़ियों तक पहुँचाया। ​रामदास 'राही' जी ने जीवन पर्यंत लोक कला के माध्यम से सामाजिक चेतना फैलाने का कार्य किया। उनकी रंग परम्परा के प्रति लगन अद्वितीय थी। वे अपनी प्रस्तुतियों में भिखारी ठाकुर की रचनाओं के मूलभाव और अंदाज़ को यथावत बनाए रखने के लिए जाने जाते थे। संस्था के कार्यक्रमों में राही जी का योगदान अविस्मरणीय रहा है। ​नवाब आलम, महासचिव,...

पक्षी: मौसम का संकेत और प्राचीन ज्ञान की धरोहर

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    ​मौसम के संकेतक: मनुष्य सदियों से पक्षियों के व्यवहार को आने वाले मौसमों के संकेत के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। ​अध्याय के अंत और नए अध्याय की शुरुआत का संकेत: पक्षियों की बढ़ती या घटती गतिविधि एक युग (अध्याय) के समापन और नए युग की शुरुआत का संकेत देती है। ​रंग और उत्साह: लंबी और नीरस अवधि (जैसे सर्दियाँ) के बाद, पक्षी अपनी उपस्थिति और रंग से प्रकृति में रंग-बिरंगा रंग और उत्साह भर देते हैं। ​सामूहिक व्यवहार और मौसम परिवर्तन की उम्मीद: जब पक्षी एक साथ इकट्ठा होते हैं और अपने पंख फड़फड़ाते हैं, तो यह मौसम में बदलाव की उम्मीद का एक पारंपरिक संकेत माना जाता है। यह पारंपरिक ज्ञान हमारे पूर्वजों ने पूरा मान और सम्मान दिया था, हालांकि आज हममें से ज्यादातर लोग इस जुड़ाव को भूल चुके हैं। ​पंचतंत्र की कहानियाँ मुख्य रूप से पशु-पक्षियों के माध्यम से मनुष्य के व्यवहार और व्यावहारिक सच्चाइयों को उजागर करती हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध कहानियाँ हैं: ​बंदर और लकड़ी का खूंटा ​सियार और ढोल ​मूर्ख साधू और ठग ​बगुला भगत और केकड़ा ​मेढक और साँप की मित्रता ​जब शेर जी उठा (मूर्ख वैज्ञानिक) ​प...

दुनिया मेरे आगे: स्वयं का निष्पक्ष मूल्यांकन !

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    ​जीवन में यह बहुत संभव होता है कि कोई व्यक्ति किसी एक के लिए अच्छे से अच्छा हो, और वहीं किसी दूसरे के लिए बुरे से बुरा हो। हमारा व्यवहार और व्यक्तित्व अलग-अलग लोगों के सामने अलग-अलग तरह से प्रस्तुत होता है, जिससे उनकी धारणाएं भी भिन्न बनती हैं। ​ऐसी स्थिति में, जब हम यह मूल्यांकन करना चाहते हैं कि हम वास्तव में क्या हैं, तो केवल दूसरों की राय पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं होता। किसी की निगाहों में, हमारे कृत्यों के प्रति बनी धारणा हमेशा सकारात्मक ही हो, यह ज़रूरी नहीं होता। ​जब बाहरी धारणाएं इतनी परिवर्तनशील हों, तब स्वयं की वास्तविकता को कैसे समझा जाए? ​इसका उत्तर हमारे भीतर छिपा है। स्वयं के बारे में निष्पक्ष तथा तटस्थ अवधारणा की पुष्टि हमारी अंतरात्मा (conscience) ही करती है। हमारी अंतरात्मा ही वह दर्पण है जो हमें हमारे कार्यों की सच्चाई दिखाता है, बिना किसी बाहरी पक्षपात या पूर्वाग्रह के। ​सच्चाई की कसौटी: हमारी अंतरात्मा ही हमें बताती है कि हमने जो किया, वह नैतिक रूप से सही था या नहीं, चाहे बाहरी दुनिया उसे कुछ भी समझे। ​स्वयं को जानना: यह हमें दूसरों की अपेक्षाओं या न...