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ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की 'हाइड्रोजन क्रांति': एक सुनहरा भविष्य !

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    ​वर्तमान समय में जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन की चुनौतियों से जूझ रही है, भारत ने स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में एक बड़ी उम्मीद जगाई है। हालिया रिपोर्टों के अनुसार, परिवहन, बंदरगाह और स्टील जैसे प्रमुख उद्योगों को 'कार्बन-मुक्त' करने के लिए हाइड्रोजन की मांग तेजी से बढ़ रही है। ​1. भारत के पास ऊर्जा का विशाल भंडार ​विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के पास हाइड्रोजन का इतना विशाल प्राकृतिक भंडार है कि यह अगले 200 वर्षों से भी अधिक समय तक हमारी ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सकता है। यह न केवल हमें ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनाएगा, बल्कि पेट्रोलियम आयात पर हमारी निर्भरता को भी कम करेगा। ​2. औद्योगिक ही नहीं, अब घरेलू उपयोग की बारी ​हाइड्रोजन का सबसे रोमांचक पहलू इसका घरेलू इस्तेमाल है। नए आविष्कारों और आधुनिक तकनीक के माध्यम से, वह दिन दूर नहीं जब हाइड्रोजन हमारे घरों की रसोई और अन्य दैनिक कार्यों के लिए आसानी से उपलब्ध होगा। यह आम आदमी के जीवन को अधिक सस्ता और प्रदूषण मुक्त बनाने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम होगा। ​3. नवीकरणीय ऊर्जा और सरकारी लक्ष्य ​भारत सरकार ...

​वेदना से विवेक तक: चेतना का रूपांतरण !

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  ​जीवन केवल सुखद अनुभवों की शृंखला नहीं है, बल्कि यह संघर्ष, पीड़ा और अंतर्द्वंद्वों का एक विस्तृत सागर है। अक्सर हम दुःख को एक अंत मान लेते हैं, लेकिन दार्शनिक दृष्टि से देखें तो 'वेदना' केवल पीड़ा नहीं, बल्कि जीवन की गूंज है। यह वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य को आत्म-निरीक्षण और सत्य की खोज के लिए बाध्य करती है। ​पीड़ा का दार्शनिक पक्ष ​साधारण स्तर पर दुःख हमें विचलित करता है, लेकिन जब यही दुःख हमारी चेतना से जुड़ता है, तो यह व्यक्तित्व निर्माण का साधन बन जाता है। छवि के अनुसार, चेतना ही वह माध्यम है जो साधारण अनुभवों को 'जीवन दर्शन' में बदल देती है। जब हम अपनी पीड़ा को केवल व्यक्तिगत हानि न मानकर उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तब 'विवेक' का जन्म होता है। ​महापुरुषों के जीवन से सीख ​इतिहास गवाह है कि महान व्यक्तित्वों का निर्माण कठिन परिस्थितियों की भट्टी में ही हुआ है: ​महात्मा बुद्ध: उन्होंने जन्म, मृत्यु और रोग जैसी सार्वभौमिक पीड़ा को देखा, लेकिन वे उससे टूटे नहीं। उन्होंने उस वेदना को करुणा और आत्म-ज्ञान में रूपांतरित कर दिया। ​महर्षि पतंजलि: उन्हों...

रूस-चीन निकटता: भारत की कूटनीतिक संतुलन की परीक्षा!

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  ​हाल के वर्षों में वैश्विक राजनीति के पटल पर रूस और चीन के बीच बढ़ती नजदीकियों ने नए भू-राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है। पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों और अमेरिका के साथ बढ़ते तनाव ने मॉस्को और बीजिंग को एक-दूसरे के करीब ला दिया है। चूँकि चीन भारत का प्रमुख रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी है और रूस भारत का एक विश्वसनीय ऐतिहासिक मित्र, यह स्थिति नई दिल्ली के लिए एक 'दोधारी तलवार' के समान है। ​वर्तमान चुनौतियां और भू-राजनीतिक परिदृश्य ​रूस अब चीन का एक महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदार बन चुका है। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि क्या रूस की चीन पर बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक निर्भरता, भारत के साथ उसके दशकों पुराने रक्षा और वैज्ञानिक संबंधों को प्रभावित करेगी। दक्षिण एशिया में चीन का बढ़ता प्रभाव और 'हिमालयी सीमा' पर तनाव भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए निरंतर चुनौती बना हुआ है। ​सुधारात्मक दृष्टिकोण और आगे की राह ​भारत को इस जटिल स्थिति से निपटने के लिए निम्नलिखित रणनीतिक सुधारों पर ध्यान देना चाहिए: ​रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy): भारत को अपनी उस नीति को और म...

न्याय की डगर और रसूख का साया।

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       ​1. कानूनी दांव-पेंच और न्याय में बाधा  आज भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर लगाम लगाना एक बड़ी चुनौती है। अक्सर "कानूनी बारीकियों"  का सहारा लेकर जघन्य अपराधों के दोषियों को रियायत मिल जाती है। जब एक सिद्ध अपराधी को जमानत या सजा में निलंबन मिलता है, तो वह केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं रह जाती, बल्कि पीड़ित के लिए न्याय के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन जाती है। ​2. सत्ता और रसूख का प्रभाव पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर का मामला है।  ​निचली अदालत ने अपराध की गंभीरता को देखते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। ​दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सजा के निलंबन के फैसले ने न्याय की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि राजनीतिक रसूख वाले अपराधी किस तरह तंत्र को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। ​3. पीड़ित का संघर्ष और व्यवस्था की विफलता ​पिता की मृत्यु, एक्सीडेंट के नाम पर जानलेवा हमला और परिजनों को खोना। जब अपराधी ताकतवर होता है, तो न्याय की लड़ाई केवल अदालत तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह जीवन और मृत्यु का संघर्ष बन जाती है। ऐसे में कानू...

मुक्त मन: स्पष्टता और करुणा का मार्ग !

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    ​जीवन की भागदौड़ और मानसिक उथल-पुथल के बीच, हम अक्सर शांति और स्पष्टता की तलाश करते हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि यह स्पष्टता आती कहाँ से है? इसका उत्तर किसी बाहरी वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे अपने 'मन की अवस्था' में छिपा है। ​1. ग्रहणशीलता: सीखने की पहली शर्त ​एक मुक्त  और ग्रहणशील मन उस खाली बर्तन की तरह है, जिसमें नया ज्ञान भरा जा सकता है। जब हम पूर्वाग्रहों और पुरानी धारणाओं से बंधे होते हैं, तो हम नए अनुभवों के लिए द्वार बंद कर लेते हैं। ग्रहणशील होने का अर्थ है—जीवन को वैसा ही देखना जैसा वह है, न कि वैसा जैसा हम उसे देखना चाहते हैं। ​2. निरंतर विकास की अनुमति ​जब मन खुला होता है, तो वह ठहरा हुआ नहीं रहता। वह एक बहती नदी की तरह होता है जो हर मोड़ पर कुछ नया सीखती है। यह खुलापन हमें स्वयं को विकसित करने की अनुमति देता है। हम अपनी गलतियों से डरते नहीं, बल्कि उन्हें विकास की सीढ़ी मानते हैं। ​3. अपूर्णता को स्वीकार करना ​समाज अक्सर हमें 'परफेक्ट' होने का दबाव देता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि अपूर्णता कोई दोष नहीं, बल्कि मानव होने का स्वभाव है। * अपूर्णता स्...

​स्मृति-शेष: रामायण के सुरों में रचे-बसे मेरे पिताश्री !-प्रो प्रसिद्ध कुमार।

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    ​भाग - 2: भक्ति का अजस्र प्रवाह और संस्कारों की विरासत ​भोर की पहली किरण और राम-नाम का गुंजन ! पिताश्री के दिन का आरंभ किसी अलार्म से नहीं, बल्कि 'मंगल भवन अमंगल हारी' की पावन चौपाइयों से होता था। जैसे ही सूर्य की पहली रश्मि आंगन को स्पर्श करती, पिताश्री के कंठ से फूटती सुरीली तान— 'श्रीरामचन्द्र कृपालु भजुमन'— पूरे घर को किसी मंदिर की पवित्रता से भर देती थी। 'जय जय जय गिरिराज किशोरी' के छंदों को जब वे अपनी विशेष रागिनी में गाते, तो ऐसा प्रतीत होता मानो भक्ति साक्षात शब्द बनकर हवा में तैर रही हो। उनके व्यक्तित्व में राम-नाम की ऐसी व्याप्ति थी कि लोग उनका वास्तविक नाम 'रामकिशुन' भूलकर उन्हें श्रद्धा से 'रामजी' ही पुकारने लगे थे। ​नामों की त्रिवेणी और एक मेधावी टीस यह एक अद्भुत संयोग ही था कि हमारे परिवार में भक्ति की गंगा नामों के माध्यम से प्रवाहित होती थी। दादाजी 'रामदेव राय' से लेकर पिताश्री के सभी भाइयों— रामावतार राय, रामाश्रय राय और राम करण राय— के नामों के मूल में 'राम' ही विराजमान थे। ​किन्तु इस पारिवारिक सुख के उपवन मे...

"मेरे पिता, मेरा स्वाभिमान"!-प्रो प्रसिद्ध कुमार।

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   ​ पुण्यतिथि: 30वीं (स्मृति शेष: 25 दिसंबर 1995) ​आज से ठीक तीन दशक पहले, 25 दिसंबर 1995 की वह दुपहरी मुझे आज भी याद है। दानापुर रेलवे अस्पताल की वह घड़ी, जब दिन के करीब 12 बज रहे थे और मेरे पिता, जिन्हें दुनिया 'रामजी' के नाम से जानती थी, हमें मोह-माया के बंधनों से मुक्त कर चिरनिद्रा में सो गए। आज उनकी 30वीं पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि-कोटि नमन। ​कर्तव्यनिष्ठा और संघर्ष का पर्याय ​पिता जी दानापुर रेलवे के IOW विभाग में राजमिस्त्री के रूप में कार्यरत थे। उस दौर में आज जैसी ठेकेदारी प्रथा नहीं थी; छोटे-छोटे निर्माण कार्यों की नींव में पिता जी जैसे कर्मयोगियों का पसीना लगा होता था। मुझे याद है, मैं छोटा था और हफ़्तों उनके दर्शन नहीं होते थे। वे सूर्योदय से पहले ड्यूटी पर निकल जाते और देर रात लौटते। समय की पाबंदी और अनुशासन उनकी पहचान थी। उनकी मेहनत का ही फल था कि आज रेलवे की वे दीवारें और संरचनाएं अडिग खड़ी हैं। ​असीम उदारता और अपनों का दंश ​पिता जी का हृदय एक विशाल समुद्र की तरह था। उन्होंने संयुक्त परिवार और अनगिनत संबंधियों की जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ढोया। उन्होंने दूसर...