संविधान की मूल भावना के खिलाफ है निजीकरण! प्रसिद्ध यादव@सिकन्दराबाद।

        


देश के विशेषज्ञों ने इसपर अपनी अपनी राय स्पष्ट रूप से दिए हैं।लोकतंत्र में लोककल्याण की भावना, लक्ष्य प्रमुख हैं , न कि व्यापार। 

सार्वजनिक संस्थाओं का निजीकरण संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। निजीकरण से सामाजिक और आर्थिक न्याय की प्राप्ति नहीं हो सकती। इससे केवल बड़े उद्योगपतियों को लाभ होगा और पूंजी के केन्द्रीकरण से वर्गभेद को बढ़ावा मिलेगा। निजीकरण की व्यवस्था अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति पर आधारित है, जिसमें सार्वजनिक और सामाजिक हितों की उपेक्षा होती है। इस व्यवस्था में मजदूरों के श्रम का शोषण होता है और कर्मचारियों की छंटनी कर बेरोजगारी में वृद्धि की जाती है। जनहित में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कार्यकुशलता में सुधार करके निजीकरण की प्रवृत्ति से बचना चाहिए ।

घातक सिद्ध होगा सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण

भारत एक विकासशील देश है। अत: यहां सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण बहुत ही घातक सिद्ध होगा। भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां की बड़ी आबादी दो समय का भोजन भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाती हैं। अत: यहां सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण करना एक तरह से गरीब के पेट पर लात मारने के समान है। अत: सरकार को सीधे जनता से जुड़े सार्वजनिक क्षेत्रों का तो निजीकरण किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए। निजीकरण से जनता का शोषण ही बढ़ेगा। घाटे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण करना तो सही है, परन्तु सभी सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण नहीं करना चाहिए।व्यवस्था सुधारी जाए।सार्वजनिक संस्थान देश को मजबूत करते हैं। जनहित का ध्यान रखना सरकार का परम कर्तव्य है। निजीकरण की अंधी दौड कहीं लोकतंत्र को कमजोर न कर दे। निजीकरण की बजाय व्यवस्था में सुधार पर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए उचित प्रबंधन करना चाहिए।सरकारी बैंकों का निजीकरण उचित नहींसार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण उचित नहीं है। गरीबों और बेरोजगार का बैंक अकाउंट कौन खोल रहा है।सरकारी योजनाओं से जुड़े ऋण कौन बांट रहा है? यह काम सरकारी बैंक ही कर रहे हैं।बढ़ेगी गरीब-अमीर के बीच की खाईसार्वजनिक संस्थानों को निजी हाथों में देने से महंगाई बढ़ेगी और गरीब आदमी की जेब पर सीधा असर दिखाई देगा। वर्तमान में अमीर और गरीब के बीच जो खाई है, वह और बढ़ेगी। इसलिए निजीकरण उचित नहीं है 


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