नाटककार सफ़दर हाशमी के बलिदान दिवस पर नमन। प्रसिद्ध यादव।

 

   




1 जनवरी 1989 को दिन के 11 बजे सफ़दर " हल्ला बोल" नुक्कड़ नाटक कर रहे थे, तभी गुंडों ने हमला कर दिया। जख्मी हो कर अस्पताल में भर्ती हुए, वहां भी आतताइयों ने हमला किया और इनकी मौत हो गई। दुनिया की पहली घटना थी, जब किसी कलाकार को अभिनय करते हुए मौत के घाट उतार दिया गया है। इनकी मां तीन दिन बाद सफ़दर के अधूरे नाटक को उसी नुक्कड़ पर अभिनय कर पूरा किया। सफ़दर जेएनयू यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी से स्नातकोत्तर कर रहे थे।इनके लिखा नाटक मशीन काफी लोकप्रिय है। दिल्ली में इनकी शव यात्रा में स्वतः लोगे की इतनी भीड़ थी कि आजादी के बाद शायद ही किसी की शव यात्रा में भीड़ होगी। इंसाफ की आवाज दबाने की साजिश रची गई है, लेकिन सफ़दर जैसे क्रान्ति वीर कुर्बानी देकर भी आवाज को बुलंद की।
गुंडों की गुंडई जाग गई. उन लोगों ने नाटक-मंडली पर रॉड और अन्य हथियारों से हमला कर दिया. राम बहादुर नाम के एक मजदूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. सफ़दर को गंभीर चोटें आई. उन्हें सीटू (CITU) ऑफिस ले जाया गया. शर्मा और उसके गुंडे वहां भी घुस आए और दोबारा उन्हें मारा. दूसरे दिन सुबह, तकरीबन 10 बजे, भारत के जन-कला आंदोलन के अगुआ सफ़दर हाशमी ने अंतिम सांस ली.
शुरुआती दौर
दिल्ली के हनीफ़ और कमर हाशमी की औलाद सफ़दर हाशमी अपने स्कूली दिनों में ही मार्क्सवाद की तरफ आकर्षित हो गए थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में मास्टर्स करते वक़्त सफ़दर को स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) के साथ काम करने का मौका मिला. जहां वो प्ले लिखने से लेकर उसके मंचन तक की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे. जब वो उन्नीस साल के थे, उन्होंने जन नाट्य मंच की स्थापना की जो मुख्यतः नुक्कड़ नाटक आयोजित करता था. ‘जनम’ के माध्यम से उन्होंने नुक्कड़ नाटकों को जन-विरोध का एक प्रभावी हथियार बनाया.
‘कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी’ उनके शुरूआती कुछ नाटकों में से था, जिसने उन्हें शोहरत और बदनामी दोनों दिलाई. ये नाटक उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अलोकतांत्रिक हरकतों पर तंज था. 1976 के आते आते उन्होंने सीपीआई की सदस्यता ले ली. आपातकाल के कहरबरपा दौर में, जब नुक्कड़ नाटक जैसी चीज़ का नाम लेना भी घातक था, उन्होंने अलग-अलग यूनिवर्सिटीज में लेक्चरर के तौर पर काम किया.
पहला नुक्कड़ नाटक
आपातकाल में जब ट्रेड-यूनियंस की कमर टूट गई थी, तब सफ़दर को महसूस हुआ कि उनमें जोशो-खरोश भरने के लिए ‘जनम’ जैसे ग्रुप की ज़रूरत है. लेकिन उस वक़्त वो किसी थिएटर ग्रुप को चलाने के लिए ज़रूरी फंड्स को मुहैया कराने में असमर्थ थे. वक़्त की ज़रूरत थी ऐसे प्ले जो कम खर्चीले हो, असरदार हो और घूमते-फिरते किए जा सकें. उस ज़रूरत का नतीजा निकला नुक्कड़ नाटक ‘मशीन’ की सूरत में. महज़ 6 एक्टर और सिर्फ तेरह मिनट की स्टोरी. नाटक की प्रेरणा एक केमिकल फैक्ट्री के मजदूरों पर गार्ड्स द्वारा किया गया क्रूर हमला था. मजदूर अपनी साइकिलों के लिए पार्किंग स्पेस और एक ठीक-ठाक से कैंटीन की मांग कर रहे थे. उनपर फैक्ट्री के सुरक्षकर्मियों ने बेरहमी से हमला बोला. 6 मजदूर मारे गए.
‘मशीन’ नाटक ने सांकेतिक तौर पर दिखाया कि कैसे फैक्ट्री मालिक, गार्ड्स और मजदूर सभी पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं. इस नाटक ने महज़ तेरह मिनटों में वंचितों के शोषण को प्रभावी तरीके से पेश कर के पूंजीवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी. आसान, काव्यात्मक भाषा और अपील करने वाली थीम की वजह से इस नाटक ने भारत के कामकाजी तबके में फ़ौरन लोकप्रियता हासिल कर ली. ‘मशीन’ को रिकॉर्ड किया गया और भारत की अन्य भाषाओँ में इसको बनाया गया

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