बजट रोजगरमुखी और किसानों को राहत देने वाला हो/प्रसिद्ध यादव।
जब संकट का समय आता है तब देश के लिए जवान और किसान ही सीने तानकर खड़े रहते हैं। कोरोना के समय जब संसद , विधाममण्डलों , मन्दिर , मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे , कल कारखाने के दरवाजे बंद हो गए थे तो केवल किसानों के खेत खलिहान खुले थे। देश के किसान अपने खेतों में देशवासियों के पेट भरने के लिए काम कर रहे थे। किसानों के नाम पर बजट में खूब आंकड़ेबाजी भी दिखाई जाती है. बानगी के तौर पर पिछले बजट में सरकार ने कृषि कर्ज का लक्ष्य बढ़ाकर 16.5 लाख करोड़ रुपए कर दिया.
जब यह राशि बजट का हिस्सा होती ही नहीं है तो फिर इसका गुणगान क्यों किया जाता है, यह बड़ा सवाल है. सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद छोटे किसानों को सरकारी संस्थानों से कर्ज मिल पाना आसान काम नहीं है.
आलू, टमाटर और मक्का से किसानों को लागत पर 30 फीसदी तक कमाई हो सकती है. जबकि इन्हीं उपज की चिप्स , चटनी और पॉपकॉर्न के रुप में प्रोसेसिंग करने वाले उद्यमियों का मुनाफा 300 फीसदी तक है. किसानों से 10 रुपए प्रति किलो खरीदा गया आलू चिप्स बनकर आखिरी उपभोक्ता तक 300 रुपए किलो बिक रहा है. उत्पादक (किसान) और उपभोक्ता के बीच की खाई में जो मुनाफा बिचौलिए उद्यमी पा रहे हैं, वह किसान भी कमा सकता है. यदि वह खुद को प्रोसेसिंग, पैकेजिंग और मार्केटिग के लिए भी तैयार कर ले.
खेत से खाने की थाली तक एक किसान और आखिरी उपभोक्ता के बीच खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि उपकरण कंपनियां समेत प्रोसेसर, पैकेजिंग, ट्रांसपोर्टर्स, होल-सेलर्स, रिटेलर्स और रेहड़ी-फड़ी वालों मिलाकर करोड़ों कारोबारी आगे बढ़ रहे हैं. तो फिर धरती पुत्र किसान आगे क्यों नहीं बढ़ सकता? उपज के बदले में किसान को लागत पर कुछ कमाई होती है. पर प्रोसेसिंग कंपनियां और उनके डीलर्स आखिर उपभोक्ता को बेचकर अधिक मुनाफे में हैं. सरकार पूंजीपतियों की कर्ज माफ करती है, लोग अनभिज्ञ रहते हैं, लेकिन किसान को कुछ रियायत मिला कि डंके की चोट से चढ़ा बढ़ा कर बताया जाता है। अभी किसान कितना खाद की किल्लत से जूझे जगजाहिर है। सरकार अपने बजट में किसानों को विशेष तरज़ीह दे।
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