देश के प्रथम निवासी, प्रथम नागरिक बनने की ओर!/प्रसिद्ध यादव
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ये अधिकार देश के प्रथम निवासी, मूल निवासी की शाश्वत सत्य है।ये किसी को भीख में देने की जरूरत नहीं है, बल्कि इनके अधिकारों को छीनकर, शोषण,दोहण कर सदियों से पडतारित किया गया है, जो अब देश के प्रथम नागरिक बनकर अपने पुरखों की बलिदान, त्याग,तपस्या साकार हो रहा है।द्रोपदी मुर्मु को रायलसीमा पर कब्जा हो जाने मात्र से वंचितों का भला होने वाला नहीं है जबतक, जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी नहीं हो जाती है। इससे पूर्व भी भाजपा अनुसूचित जाति के कोविंद को राष्ट्रपति पद पर विराजमान किया,लेकिन नतीजा सिफर रहा। मुर्मु को रायलसीमा भेजने की तैयारी में कोई एहसान नहीं कर रहा है, बल्कि मुर्मु खुद योग्य हैं। इनकी संघर्ष गाथा हर वंचितों की कहानी है। लालू यादव ने पहली बार सिंधु कान्धु ,तिलका मांझी के नाम पर विश्विद्यालय का नामकरण किया था। बिरसा मुंडा को आज भी आदिवासी भगवान मानते हैं। आदिवासी भारत के प्रथम निवासी हैं, जिनकी जनसंख्या 10.43 करोड़ है जो देश के कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. इनके साथ सबसे ज्यादा अन्याय किया गया हैए. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। यही वह समुदाय है जिसके संघर्ष और बलिदान का सबसे लंबा इतिहास है। आदिवासी इलाकों की मिट्टी उनके खून से सना हुआ है, यहां के सड़कों का हरेक मोड़ आदिवासियों के खून से रंगा है और प्रत्येक आदिवासी गांव का रास्ता शहीदों के कब्रों से होकर गुजरती है। यह संघर्ष 1784 में बाबा तिलका मांझी की बर्बरतापूर्ण हत्या एवं फांसी से शुरू होकर 2016 में खूंटी के सायको में अब्राहम मुंडा की पुलिस फायरिंग में निर्मम हत्या से आगे बढ़ चुका है। लेकिन इतना संघर्ष और बलिदान के बावजूद आदिवासी लोग हाशिये पर पड़े हुए हैं। आदिवासियों के खून की कीमत पर बने सीएनटी/एसपीटी जैसे भूमि रक्षा कानूनों से उनकी जमीन नहीं बच पा रही है। भारत के संविधान की पांचवी व छठवीं अनुसूची, आरक्षण का प्रावधान एवं अन्याय व अत्याचार से सुरक्षा देने का संवैधानिक प्रावधान उनके काम नहीं आ रहा है। एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम 1989, पेसा कानून 1996, वन अधिकार कानून 2006 जैसे प्रगतिशील कानूनों से न उनके खिलाफ होने वाला अत्याचार रूक पा रहा है और न ही उन्हें अपने इलाकों में शासन करने तथा जंगल व जमीन पर अधिकार मिल रहा है। इसलिए हमें गंभीरता के साथ विश्लेषण करना चाहिए कि क्या आज आदिवासियों का संघर्ष दिशाहीन हो चुका है? आदिवासियों का यह संघर्ष राजसत्ता के अस्तित्व में आने के साथ ही शुरू हो गया था क्योंकि ब्रिटिश राजसत्ता ने आदिवासी इलाकों को बंदूक के बल पर कब्जा करना शुरू किया और आदिवासियों से उनकी जमीन का लगान मांगा। बाबा तिलका मांझी ने राजसत्ता के अस्तित्व को ही नाकारते हुए कहा कि जमीन हमें भागवान ने उपहार में दिया है तो ‘सरकार’ बीच में कहां से आयी? हम सरकार को लगान क्यों दें? जब आदिवासियों ने राजसत्ता के अस्तित्व को ही नाकार दिया तब ब्रिटिश हुकूमत ने बंदूक के साथ कानून का सहारा लेना शुरू किया। इसी के तहत 1793 में स्थायी बंदोबस्ती कानून लागू की गई और आदिवासियों से कहा गया के वे ब्रिटिश सरकार से अपनी जमीन के लिए कागज का टुकड़ा ;पट्टाद्ध हासिल कर लें। लेकिन बहुसंख्यक आदिवासियों ने अंग्रेजी सरकार से कागज का टुकड़ा लेने से इंकार कर दिया क्योंकि कागज का टुकड़ा लेने का अर्थ था राजसत्ता के अस्तित्व और अधीनता को स्वीकार करना। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने गैर-आदिवासियों की मद्द से आदिवासियों को पट्टा लेने पर मजबूर कर दिया और जिन्होंने पट्टा नहीं लिया उनकी जमीन गैर-आदिवासियों को दे दी गई। इस तरह से आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासियों की घुसपैठी हुईं। 1865 में पहला वन अधिनियम बनाकर जंगलों को भी आदिवासियों से छीन लिया गया और बाद में वनोपज पर भी लगान लाद दिया गया तथा 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून के द्वारा विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन हाथियाने का सिलसिला शुरू हुआ, जिसके खिलाफ लंबा संघर्ष चला। आदिवासियों का मौलिक संघर्ष राजसत्ता के खिलाफ है इसलिए जो भी व्यक्ति सत्ता पर बैठता है वह आदिवासियों के उपर गोली चलवाता है। अंग्रेजी हुकूमत के समय अंग्रेजों ने आदिवासियों के उपर गोली चलाया और आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1 जनवरी 1948 को खरसावां में गोली चली, जिसमें 2000 से अधिक लोग मारे गये। आशा है मुर्मु को रायलसीमा पहुंचने पर देश के प्रथम निवासियों को भला हो।
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