बिहार के साहित्यकार,कला/बीपीएससी सीरीज 25A-प्रसिद्ध यादव।

 



  विद्यापति
यह निश्चिततापूर्वक नहीं जाना जाता है कि विद्यापति का जन्म कब हुआ था और वे कितने दिन जीते रहे | मैथिल  कवि कोकिल, रसासिद्ध कवि विद्यापति, तुलसी, सूर, कबूर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं। अमीर खुसरो यद्यपि इनसे पहले हुए थे। महाकवि विद्यापति का जन्म वर्तमान मधुबनी जनपद के बिसपू नामक गाँव में एक सभ्रान्त मैथिल ब्राह्मण गणपति ठाकुर (इनके पिता का नाम) के घर हुआ था। बाद में यसस्वी राजा शिवसिंह ने यह गाँव विद्यापति को दानस्वरुप दे दिया था। इस दानपत्र कि प्रतिलिपि आज भी विद्यापति के वंशजों के पास है जो आजकल सौराठ नामक गाँव में रहते हैं।  भारतीय भक्ति साहित्य की  प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वश्रेष्ठ  कवि के रूप में जाने जाते हैं। इन्हें वैष्णव और शैव तथा शाक्त  भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप के रूप में देखा  जा सकता है।  मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महत्वपूर्ण  प्रयास किया है। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की श्रृंगार और भक्ति रस में पगी रचनायें जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनायें हैं। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृ भाषा मैथिली पर समान अधिकार था। विद्यापति की रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, एवं मैथिली तीनों में मिलती हैं।
कालिदास
इनका जन्म स्थान कहाँ है इस पर विद्वानों का मतभेद है, परन्तु एक किवदंती के अनुसार माना जा सकता है की  कालिदास अत्यंत मुर्ख था  जिससे उनकी पत्नी कुपित होकर उन्हें त्याग कर दिया था | माना जाता है की मिथिला में सिद्ध शक्तिपीठ  उच्चैठ  में अबस्थित माँ दुर्गा , उनके मुर्खता से प्रसन्न होकर  उन्हें  बरदान दिया था जिनके फलस्वरूप वे एक ही रात में  विद्वान हो गए, आज भी मिथिला में लोग इस घटना को लोक कथा के रूप में याद करते है , और आज भी वहाँ  कालिया डीह  है,  जो पहले क्षत्रावास था जहाँ  कालिदास नौकरी करते थे | इससे एक अवधारणा यह भी है की कालिदास का जन्म मिथिला , बिहार में हुआ था ..
रामधारी सिंह दिनकर
हिन्दी के प्रसिद्ध कवियों में से एक राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 ई. में सिमरिया, मुंगेर (बिहार) में एक सामान्य किसान 'रवि सिंह' तथा उनकी पत्नी 'मनरूप देवी' के पुत्र के रूप में हुआ था। इनकी मृत्यु 24 अप्रैल, 1974 को चेन्नई में हुई ।   
 रामधारी सिंह दिनकर एक तेज्वास्वी  राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कवि के रूप में जाने जाते थे। उनकी कविताओं में छायावादी युग का प्रभाव होने के कारण शृंगार के भी प्रमाण मिलते हैं। दिनकर के पिता एक  किसान थे। दिनकर दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहांत  हो गया। अतः  दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा
  दिनकर के प्रथम तीन काव्य-संग्रह प्रमुख हैं– ‘रेणुका’ (1935 ई.), ‘हुंकार’ (1938 ई.) और ‘रसवन्ती’ (1939 ई.) उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इनमें दिनकर का कवि अपने व्यक्ति परक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में मिलता है।
रेणुका – में अतीत के गौरव के प्रति कवि का सहज आदर और आकर्षण परिलक्षित होता है। पर साथ ही वर्तमान परिवेश की नीरसता से त्रस्त मन की वेदना का परिचय भी मिलता है।
फणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म  औराडी हिंगन्ना, जिला पूर्णियां, बिहार में , 4 मार्च 1921 को हुआ। वे हमेशा आजीवन शोषण और दमन के विरूद्ध संधर्षरत रहे। इसी प्रसंग में सोशलिस्ट पार्टी से जा जुड़े व राजनीति में सक्रिय भागीदारी की। 1942 के भारत-छोड़ो आंन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। 1950 में नेपाली दमनकारी रणसत्ता के विरूद्ध सशस्त्र क्रांति के सूत्रधार रहे। 1954 में 'मैला आँचल' उपन्यास प्रकाशित हुआ तत्पश्चात् हिन्दी के कथाकार के रूप में अभूतपूर्व प्रतिष्ठा मिली। जे० पी० आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की और सत्ता द्वारा दमन के विरोध में पद्मश्री का त्याग कर दिया। हिन्दी आंचलिक कथा लेखन में सर्वश्रेष्ठ माने जाते है | 11 अप्रैल, 1977 को पटना में अंतिम सांस ली।

साहित्य सृजन:
कहानी संग्रह: ठुमरी, अग्निख़ोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप, अच्छे आदमी।
उपन्यास: मैला आंचल, परती परिकथा, दीर्घतया, कलंक -मुक्ति, जुलूस, कितने चौराहे, पल्टू बाबू रोड।
संस्मरण: ऋणजल--धनजल, वन तुलसी की गन्ध, श्रुत अश्रुत पूर्व।
रिपोर्ताज: नेपाली क्रांति कथा। कहानी ‘मारे गये गुलफाम' पर बहुचर्चित हिन्दी फिल्म ‘तीसरी कसम' बनी जिसे अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए। 
गोपाल सिंह नेपाली -
गोपाल सिंह नेपाली (Gopal Singh Nepali) का  जन्म 11 अगस्त 1911 को  बेतिया, पश्चिमी चम्पारन (बिहार) में  हुआ। गोपाल सिंह नेपाली की काव्य प्रतिभा बचपन में ही दिखाई देने लगी थी। गोपाल सिंह नेपाली को हिन्दी के गीतकारों में विशेष स्थान प्राप्त है, इसीलिए उन्हें, 'गीतों का राजकुमार' कहा गया है। हिंदी  फिल्मों के लगभग 400  गाने उनके द्वारा लिखे गये है  |
एक बार एक दुकानदार ने बच्चा समझकर उन्हें पुराना कार्बन दे दिया जिस पर उन्होंने वह कार्बन लौटाते हुए दुकानदार से कहा- 'इसके लिए माफ कीजिएगा गोपाल पर, सड़ियल दिया है आपने कार्बन निकालकर'। उनकी इस कविता को सुनकर दुकानदार काफी शर्मिंदा हुआ और उसने उन्हें नया कार्बन निकालकर दे दिया।  कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे 'गीतों के राजकुमार' गोपाल सिंह नेपाली लहरों की धारा के विपरीत चलकर हिन्दी साहित्य, पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में ऊंचा स्थान हासिल करने वाले छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि और गीतकार थे।
युवावस्था में नेपालीजी के गीतों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें आदर के साथ कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' उनके एक गीत को सुनकर गद्गनद् हो गए। वह गीत था-
सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की
कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की
क्या दरस-परस की बात यहां, जहां पत्थर में भगवान है
यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है..
बिहार के कला -

मौर्यकालीन कला

मौर्यकाल में ही पहले कलात्मक गतिविधिया देखने को मिलता है। राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला। मौर्य कला के दो रूप मिलते हैं। एक तो राजरक्षकों के द्वारा निर्मित कला, जो कि मौर्य प्रासाद और अशोक स्तंभों में पाई जाती है। दूसरा वह रूप जो परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर धारिणी यक्षिणी, और वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है।
‘दीदारगंज यक्षिणी’
1917 में पटना के दीदारगंज से प्राप्त मौर्य-कालीन प्रस्तर प्रतिमा ‘दीदारगंज यक्षिणी’ कला-इतिहास में एक विशिष्ठ स्थान रखता है। दीदारगंज प्रतिमा के सिर और नितम्बों के ऊपर का अग्र भाग, बिलकुल आधुनिक मूर्ति-कला की विशिष्ठता लिए है, जबकि इसके पश्च भाग में और कूल्हे से नीचे के अग्र भाग में वास्तविकता का आभाव दीखता है। इस मूर्ति पर चमकदार पॉलिश और इसके चुनार का बलुआ पत्थर का बना होना तथा इसकी तमाम खूबियाँ जो अशोक-स्तंभों के शीर्ष मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं ये सारी खूबिया यक्षिणी को मौर्य कालीन होने का प्रमाण देती है। इस प्रतिमा में नारी के सौन्दर्य और शारीरिक कमनीयता का सजीव और स्वाभाविक चित्रण है। पेट, कमर और गर्दन के पेशियों को सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया गया है। कूल्हे को चौड़ा और भारी बनाया गया है। ये सारे अभिलक्षण भारतीय प्रतिमानों के अनुसार एक सुन्दर, कमनीय स्त्री के हैं। इसके आँख का तिरछा-पन, नज़रों का कोण थोड़ा आगे (ऊपर) होना और होठों पर एक मोहक स्मित का अंकन, स्त्री के शील, चपलता और मोहकता को जीवंत बनाने के लिए किया गया है, जो भारतीय साहित्य में नारी सौंदर्य-चित्रण में बहुलता से वर्णित है। अतः यह निश्चित रूप से ‘आदर्श नारी’ के प्रतीक के रूप में बनाया गया होगा। इस मूर्ति के चित्रण में वात्स्यायन के ‘काम-सूत्र’ में वर्णित नारी के अभिलक्षणों का समावेश दीखता है। ज्ञातव्य है कि वात्स्यायन का काल मौर्य-काल के आस-पास ही रहा है।
पाल शैली
मध्यकालिन चित्रकला में लामतारनाथ जो एक तिब्बती इतिहासकार थे। उन्होंने बताया की 9 वी.शताब्दी में पूर्वी भारत में एक नयी शैली ने जन्म लिया था जो उस समय पूर्वी शैली के नाम से जानी गयी बाद में इसका नाम पाल शासको के संरक्षण में इसका जन्म होने के कारण इसका नाम पाल शैली पड़ा । पाल शैली में अधिकतर दृष्टान्त चित्र ( पुरानी घटना पर आधारित चित्र ) निर्मित हुए ।पाल शैली में चित्रों का निर्माण ताड़पत्रों पर हुए थे । जो जातक कथा पर आधारित होते थे । ये चित्र अधिकतर बंगाल ,नेपाल और बिहार में बने । इस शैली में कपड़ों पर भी चित्रों का निर्माण हुआ है ।
पाल शैली का उदय माल्या जिले के गौद नमक स्थान पर हुआ था । पाल शैली के संस्थापक गोपाल पाल को कहा जाता है। लेकिन इस काल का स्वर्ण काल राजा धर्मपाल 770 -815 ई. और देवपाल 815-855 ई. के शाशन में रहा इस काल में पोथियाँ देवनागरी लिपि में लिखी गयी। पाल वंश का अंतिम राजा राम पाल 1084-1130 ई. को जाना जाता है। पाल वंश का प्रमुख केंद्र नेपाल, बिहार, बंगाल, और उड़ीसा था। धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय ( भागलपुर,बिहार गंगा किनारे ) और ओदान्त्पुरी तथा सोमपुरी विहारों का निर्माण करवाया। देवपाल ने बोधगया में बोधिमंदिर का निर्माण करवाया।
पाल शैली में पोथी चित्र /लघु चित्र का निर्माण ताड़ पत्र पर हुए ।
धार्मिक चित्र और भगवान् बौद्ध पर आधारित चित्रों का निर्माण हुआ ।
चेहरे सवा चश्म अधिक है कहीं -कहीं एक चश्म चेहरे बने है । नाक लम्बी और ऑंखें बड़ी -बड़ी दिखाई गयी है ।
इन चित्रों में अजंता की झलक दिखाई देती है । लेकिन अजंता चित्र जैसी विशेषता नहीं दिखती है ।
काले रंग से रेखा खिंची गयी है जो किसी निब या किसी नुकीली वस्तु से की गयी है ।
प्रकृति चित्रण में कदली या नारियल ही बनाया गया है आकाश नहीं बनाया । केवल आकृति चित्रण हुआ है ।
 मंजूषा कला
मंजूषा कला अंग प्रदेश की लोक कला है यह बिहुला विषहरी के लोक गाथा पर आधारित है वर्तमान में बिहार के भागलपुर जिले के आसपास के क्षेत्र को जाना जाता है।यह परंपरा कितनी प्राचीन है इसके बारे में तो प्रामाणिक तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है। इस अंचल में पुरातत्व विभाग द्वारा 1970-71 में कर्णगढ़ की खुदाई में मिले सिंधुकालीन कुछ अवशेषों के आधार पर स्थानीय लोग इस परंपरा को सिंधुघाटी काल से जोड़कर देखते हैं। वैसे इस मंजूषा चित्रकला को स्थानीय अंचल से बाहर की दुनिया को परिचित कराने का श्रेय 1941 में भागलपुर में पदस्थापित रहे आई. सी. एस. अधिकारी व कला मर्मज्ञ डब्ल्यू. सी. आर्चर को जाता है। जिन्होंने स्थानीय मालाकार व कुंभकारों द्वारा बरती जाने वाली इस कला की कुछ कृतियों को लंदन स्थित इंडिया हाउस में प्रदर्शित किया। तब जाकर दुनिया सदियों पुरानी इस लोक परंपरा से जुड़ी मंजूषा चित्रकला से परिचित हो पायी।
मंजूषा कला में रंगों व आकृतियों की अपनी प्रतीकात्मकता है। यह आमतौर पर माना जाता है कि लाल या गुलाबी उत्सव का प्रतीक है। पीला रंग विवाह का प्रतीक है और हरा रंग विषदंश का प्रतीक है। इनके प्रतीकार्थ अनेक हैं। हरा रंग वंश वृद्धि का भी प्रतीक है। आकृतियों या पात्रों में बिहुला अक्सर खुले केश में दिखती है। उसके समक्ष एक सर्प होता है। विषहरी बहनें अपने नाम-रूप प्रतीकों के साथ चित्रों पर उतरती हैं। विषहरी के रूप में मन के पंच विकारों की प्रतीकात्मक भी सामने आती है। पंच विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद। मंजूषा चित्रों के बॉर्डर लहरिया आकृतियों से बनाई जाती है, जो बहुदा सर्प की लड़ियां होती हैं। इन्हें उफनती गंगा या समुद्र माना जाता है। लोक-गाथा में प्रयुक्त इन प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों को पूरे मनोयोग से मंजूषा की सबसे चर्चित चित्रकार चक्रवर्ती देवी ने कागज पर उतारा और आज उनमें थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ उन चित्रों की असंख्य अनुकृतियां बनाई जा रही हैं


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