शहीदों के एक-एक खून के क़तरे ( कविता)- प्रसिद्ध यादव।
शहीदों के एक-एक खून के क़तरे
गिरे जन्नत की भूमि पर
सूनी हुई माँ की गोद
मिट गई माथे की सिंदूर
अनाथ हुए औलाद
बूढ़े बाप की टूटी लाठी
जली चिताओं की आग।
रोते-विलखते हिंदुस्तानी
वीरान हुआ घर-आंगन,
गांव-चौपाल सूना-सुना
दहाड़ मारती मईया
खूंटा पे खड़ी आंसू बहाते
रम्भति गईया।
अनाथ हुऐ खिलखिलाते बच्चे
सर धुनते,फफकते भाई
दहलीज़ पर खड़े-खड़े
शहीदों के एक-एक खून के क़तरे।
कहाँ,क्यों,कैसे हो गई भूल ?
कैसे फूल बन गये धूल?
किससे पूछूँ?थी किसकी लापरवाही?
हर्जाना चुकता करना है क्या काफ़ी?
एयर लिफ़्ट भी हो सकता था
होनी तो कुछ और मंजूर थी।
चिता की राख ठंढी भी न हुई थी
चुनाव भाषण शुरू था
तालियां बज रही थी
ठहाके लग रहे थे
एसी में बैठकर दुश्मनों को ललकारते
कभी सीमा पर जाकर दुश्मन को दहाड़ते।
कुछ ऐसा कर दिखा
खत्म हो जाये ख़तरे
शहीदों के एक-खून के क़तरे ।
नोट - 4 साल पूर्व पुलवामा में शहीद हुए जवानों को श्रद्धांजलि सभा मेरे गांव बाबूचक में हुई थी, जिसमे फुलवारी से ध्रुव यादव, दिनेश रजक, कौशर खान, दिनेश पासवान
सहित मेरे गांव के सैंकड़ों लोग श्रद्धांजलि अर्पित किए थे और उस समय की लिखी गई मेरी ये कविता-प्रसिद्ध यादव।
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