पेट की आग बुझाने में बूझ जाती है जिंदगी ! ( कहानी )- प्रसिद्ध यादव।
गरीबों की जीवन संघर्षों, अभावों,दर्द व पीड़ा में होती है।ये इनके साथी होते हैं या यूं कहें साया की तरह साथ -साथ होते हैं।
बात 1976 की है।मेरी उम्र करीब 9 साल की रही होगी। दीपावली आने वाली थी। लोग घरों की साफ सफाई कर रहे थे।गांव के अधिकांश घर मिट्टी खपरैल के थे। हर कोई दिवाली में अपने परिवार के लिए मिठाई, खिलौने खरीदने की जुगाड़ में थे। उन दिनों गांवों में बिजली नही थी ,ना ही मोमबत्ती की उतनी चलन थी। लोग मिट्टी के दीप जलाते थे। मिट्टी की दीप, खिलौने, कुल्हिया चुकिया का बहुत डिमांड थी।मेरे गांव में अनेक घर कुम्हार( प्रजापति ) रहते हैं।उन दिनों इनलोगों के पुश्तैनी काम यही था। इसे बेचकर अच्छी आमदनी कर लेते थे। संत पंडित बहुत अच्छे कारीगर थे।ये भी दिया पकाने के लिए आम की बगीचे में कुल्हाड़ी लेकर गए। शाम होने वाला था, लकड़ियां काट काट कर इकट्ठा कर लिए थे। थोड़ी सी लकड़ी के लिए फिर पेंड़ पर चढ़ गए। हमलोग कौतूहल वश नीचे से देख रहे थे। लकड़ी काटते काटते धड़ाम से जमीन पर गिर पड़े और छटपटाने लगे।हम लोग छोटे थे हल्ला करना शुरू किया। गांव के जवान लोग टांग कर ले जाने लगे,लेकिन वे अपने घर जाते जाते खत्म हो गए थे। रोना पीटना शुरू हो गया था। न आवे में लकड़ी पड़ी,न दीप जले। अगर जली तो उस गरीब की उसी की लकड़ी से उसकी चिता!😢 पेट की आग बुझाने में गरीबों की जिंदगी कैसे बुझी? यह मैने देखा था। संत पंडित तो एक उदाहरण हैं। आज भी हर दिन लाखों जिंदगियां, पेट की आग बुझाने में बूझ जाती हैं।
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