गोरगवा मेला ! अतीत से वर्तमान तक- प्रसिद्ध यादव।
" हो.....
अरि अवध में, बाजै बधै.या....
कौशल्या के, ललना... भई..
अरे. नौमी तिथि, अति शीत न घामा...
कौशल्या के, ललना... भई..
हो.........
अरि राम जी के, भइले जनमवा... हो..
हो....
अरि राम जी के भइले जनमवा
चला हो, करि आ.ई दरशनवा.
रानी कौशल्या, अरि पलना. झुलावैं....
रानी कौश..ल्या पलना. झुलावैं..
पलना झुलावैं, गुइयाँ पलना झुलावैं
पलना झुलावैं रामा.. पलना झुलावैं
रानी कौश..ल्या पलना झुलावैं
देखि के, विहसे परनवा
माई कौश..ल्या, बलि बलि जावैं ....
प्रकटे हैं राम भगवनवा
होत अनं..द, अवध नगरी में....
शोभवा न जा.ई बरनवा
तुलसीदा..स, स्वामी सुख सागर....
सुन्दर लाल सलोनवा। " ऐसे ही रसभरी चैता की गीत गोरगवां मेला की अपनी खास पहचान थी।
दानापुर स्टेशन और खगौल से करीब 3 किमी पश्चिम शाहपुर थाना के दानापुर प्रखंड व अनुमंडल के जमालुद्दीन चक पंचायत में हावड़ा दिल्ली रेल मार्ग से सटे दक्षिण गोरगवां गांव है और गांव के पश्चिम भगवती दुर्गा माँ की प्राचीन मंदिर है। पूर्व में यह भगवती पुर गोरगवां पंचायत में था ,जिसमें सरारी भी था।यह बिल्कुल ग्रामीण मेला था। इस मेले में कृषि सम्बंधित छोटे छोटे समान जैसे चलनी,सुप घरेलू उपयोग की बस्तुएं कलछुल,छोलनी ,तवा, चौकी ,बेलन ,साँचा आदि।उनदिनों फ्रिज का चलन नही था तब पानी पीने के लिए मिट्टी के घड़े , टुइयाँ आदि खूब बिकते थे । लौके कलाकारों की मजमा देखने में बनते थे। फुलवारी अधपा के एक बुजुर्ग कलाकार गीत लिखकर तरह तरह के लोक गीत गाते थे और उस गीत को छोटे किताब के रूप में बेचते थे।बांसुरी की मनमोहक धुन ,डफली की धुन ..
चैता के गोला - इस मेला के सबसे महत्वपूर्ण आकर्षण का केंद्र ग्रामीण कलाकारों द्वारा चैत के गीत होते थे। 6 7 गोल मंडली विभिन्न गांवों के लोग आते थे, शामियाना लगा होता था और चैता गाने वाले मंडली चैता से दर्शकों को समां बांधे रखते थे।हर मंडली में एक दो ब्यास और पीछे से 40-50 लोग कोरस के रूप में गाते थे। बीच में लौंडा का नाच इसमें वचनवा, जदुआ, सुदामा आदि ,क़िलात, हारमोनियम, नाल,ढोलक,तासा और दर्जनों झाल की आवाज से धड़ मच जाता था।लोग आम के पेंड़ पर चढ़ कर चैता देखते सुनते थे।मेला प्रबंधक चैता मंडली को पहले से ही चिट्ठी देकर आमंत्रित करते थे लेकिन पुराने व्यवस्थापकों के गुजरने के बाद ये बीते दिनों की बात बनकर रह गई है।नतीजा, आज कई वर्षों से कोई चैता मंडली नहीं देखने को मिलता है। चैता मंडली में बाबूचक, महम्मदपुर, कोरजी,हनुमान चक,अजवां आदि गांवों के प्रमुखता से आते थे। मेला में अधिकतर लोग धोती, कुर्ता,सर पर पगड़ी बांधे हुए रहते थे ,हाथों में झोला लेकर आते थे और मेला से गुड़ की जलेबी ,लाई अपने अपने घर ले जाते थे।
बलि प्रथा -आज भी यहाँ बलि प्रथा है । खशी का बलि दशहरा और चैत नवमी में खूब होता है।बलि वाले जगह खून की धार चलते रहती है जो हृदय विदारक लगता है। सैंकड़ों बलि पड़ते हैं।
मंदिर के अध्यक्ष अमर सिंह, कोषाध्यक्ष भानु ने बताया कि यहाँ मेला 1932 से लगता है और उससे पहले छोटा रूप था।मंदिर कब बना इसकी जानकारी किसी को नहीं है।
मंदिर में चोरी की घटना - इसकी सबसे बड़ी नकारात्मक बात मंदिर परिसर में महिलाओं के हार, कनबाली आदि की चोरी है।कुछ समय पहले मंदिर में चोरी की भी घटनायें हुई जो आस्था को चोट पहुंचाती है। यहां मन्नत मांगने व उतारने ,खोइन्चा भरने ,भारा उतारने के लिए दूर दराज से लोग आते हैं।मंदिर के आसपास घर बन जाने के कारण मेला स्थल कम पड़ गया है। शाहपुर पुलिस मेला में लगातार चौकस रहती है।स्थानीय पंचायत जनप्रतिनिधि और गण्यमान्य लोग रहते हैं।बदलते समय के कारण मेला का स्वरूप बदल गया, लोगों की अभिरुचि घट रही है, भीड़भाड़ से लोग दूरी बना रहे हैं।
बिहार सरकार के कला संस्कृति मंत्रालय, कृषि आदि मंत्रालय का प्रदर्शन होता तो आज मेला का स्वरूप अलग होता लेकिन व्यवस्थापक और बिहार सरकार की उदासीनता के कारण मेला भी उदासीन हो गया है।
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