कभी वो मेरे दरबार का दरबारी था । ( कविता ) -प्रसिद्ध यादव।
कभी वो मेरे दरबार का दरबारी था ।
आज वो खुद दरबार लगा रहा है।
कभी वो सर पटकता था मेरे पैरों पर
आज वो सर पर पगड़ी बांध
मुझे ही मिट्टी में मिलने की करता है बात
जिसकी कोई अपनी बिसात नहीं
गुब्बारे जैसे फुला है
कब पिचक जाए ,कब फुट जाए
कब खुद मिट्टी में मिल जाये
उसे भी नहीं पता ।
इतना भी स्वार्थ ठीक नहीं
जन्मदाता को भी भूल जाएं।
ये अच्छी संस्कार नहीं।
किसी की पहचान चेहरे से नहीं
उसकी वाणी ही बहुत है
उसकी संगति,कहानी ही बहुत है।
मुखोटे के ऊपर मुखोटे
लगाकर घूमते हैं लोग
कौन है वहसी ,दरिंदे
पहचानते नही है लोग ।
इसकी पहचान बड़ी सहज है ।
जो चीख रहा है, चिल्ला रहा है
वो तो चमन्नी छाप है ।
जो पर्दे के पीछे सज्जन की चोला पहने है
वही बड़ा षड्यंत्रकारी है ।
ये मीठी वाणी बोलता है
चोला किसी और का ओढ़ता है
करता बात प्रेम ,अहिंसा की
नित्य नफरत ,हिंसा फैलता है।
ये रट्टू तोता है
इसे न है कोई बौद्धिक दृष्टिकोण
जिसके पूर्वजों को कभी आराध्यदेव के
दर्शन होने दिया था
वहाँ प्रवेश वर्जित था ।
रवि वर्मा की चित्रकारी से
आराध्यदेव को पहचाना था
जिसे न कभी पंगत में बैठ साथ खाने दिया
जूठन पत्तल उठाने काम किया।
आज वही झंडा पताका लेकर घूम रहा है।
किस बात पर गर्व महसूस कर रहा
बाबा साहेब न होते
आज भी कीड़े मकोड़े रहते
कोटि कोटि देव पहले भी थे
आज भी हैं ।
हर आदमी पर तीन देव थे
फिर भी गुलाम, कंगाल थे ।
धन विद्या से क्यों नहीं भेंट हुए ।
ज्योति ब फुले ,सावित्री बाई को छोड़
सिर्फ माटी के मूरत को जानते हो ।
लानत है तुम पर
जो बौद्धिक कहलाते हो ।
कब टूटेगी मानसिक गुलामी की बेड़ियाँ?
कब याद करोगे कबीर की सखियां ?
पोथी- पढ़ी पढ़ी जग मुआ ..
आने वाली पीढियां न सिर्फ हिसाब लेगी
वरन तेरे नाम पर थूकेगी।
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