यहाँ है कुछ भूखा ! ( कविता ) -प्रसिद्ध यादव।


  यहाँ है  कुछ  भूखा !

कोई धन का 

कोई निरोग तन का 

कोई जागीर 

कोई शांति मन का 

यहाँ है   कुछ टूटा।

यहाँ  है   कुछ  भूखा ।

कोई बल का 

कोई छल  कपट का 

कोई प्रसिद्धि 

कोई ऐश्वर्य का 

यहाँ है   कुछ रूठा।

यहाँ है   कुछ  भूखा ।

न चैन किसी को

 न रहने दे चैन किसी को 

कोई आगे किसी के 

कोई पीछे किसी के

कोई बेवजह है 

बीच किसी  का 

करता अपने मन का 

खूब है गुथम - गुथा।

यहाँ है  कुछ  भूखा।

कोई पावर का 

कोई पद का 

कोई सत्ता 

कोई सत्ता के गलियारे का 

चाटता है   कुछ जूठा ।

यहां है    कुछ भूखा!

यहाँ चलता है झूठा का

जालसाज का 

फरेबी ,पाखंड

,अंधविश्वास का 

आंखें दिखाता कुलटा ।

यहां है  कुछ  भूखा!

दूसरों को दुख देकर 

चाह है सुख का 

लूट खसोट कर 

धनवान होने का

ब्यभिचारी होकर 

संत होने का

भ्रष्ट होकर 

समाज सुधारक का 

कुछ  माथे पर लेकर

 घूमता है  पाप का मटका ।

यहां है  कुछ  भूखा!

 साधु - स्वामी बनकर यहां

बेटियों को है नोचा।

यहां है  कुछ  भूखा!

गिरगिट की तरह है रंग बदला 

 कुछ  है नहले पर दहला 

बिकती है ज़मीर 

मरती है अंतरात्मा 

वादों का क्या ? 

हर पल टूटते हैं भरोसे 

मिट्टी में  मिलते  है सपनें 

उन सपनों का क्या ?

डर से कोई बोलता नहीं 

मुँह पर है लटका  ताला ।

यहां है  कुछ  भूखा!

खाली हाथ है जाना बन्दे !

मत कर छीना - झपटी

साथ न एक जाए अधेला 

क्यों करता  मारामारी ?

सन्तोषभाव रख मन में

अपना पराया का भेद क्या ?

तब कभी न हो धोखा ।

यहां है  कुछ  भूखा!

अपनों में तू जान सभी को

सब मे अपना जानो 

ऊंच नीच का भेद मिटे सब 

धन्य हो जीवन का 

कभी मारे न दर्द का झोंका ।

यहां है  कुछ  भूखा!

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