मैं तो हूँ तेरे पास में ! संत कबीर।

 



कबीर साहेब ने बहुत अच्छी बात  कही थी  -

मोको कहां ढूंढे रे बंदे,


मैं तो तेरे पास में ।


ना तीरथ में ना मूरत में,


ना एकांत निवास में ।


ना मंदिर में, ना मस्जिद में,


ना काबे कैलाश में ।

कबीर इतना यथार्थवादी, तार्किक थे कि  हर पहलुओं को  करीब से देखें हैं। आज हम न घर में माँ -बाप, भाई- बहन , पासपड़ोस को भी नही देखते हैं। अभावग्रस्त लोगों से दूर भागते हैं और तीर्थधाम पर जाकर पंडों, पुजारियों से लात खाकर भगवान को ढूंढते हैं। मस्जिदों में 5 -5 टाईम जाकर उठक बैठक लगाते हैं ।सिर्फ शांति और बरकत के लिए।क्या वहां सब मिल जाता है? जीता - जागता आदमी पत्थर नज़र आता है और पत्थर भगवान , अल्लाह नज़र आता है। यह कैसी विडंबना है? कभी धार्मिक स्थलों के जाने के बजाय अपने माता-  पिता  परिजनों ,कुटुम्बों के सान्निध्य में बैठकर देखें,उनकी तकलीफों को महसूस करें, सकूं मिलेगा।

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