प्रेमचंद किसानों ,मजदूरों व लाचारों के कथाकार थे। -प्रसिद्ध यादव।
वे सच्चे मानवतावादी थे। पाखण्ड,आडम्बर ,ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोधी थे।मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज सजीव चित्रण किया है. उन्होंने वर्ण व्यस्था और जाति प्रथा में उलझे समाज को अपनी कहानियों में प्रस्तुत किया है. यह वह समाज है जिसमें एक तरफ शोषक और तो दूसरी तरफ शोषित. 'ठाकुर का कुआं' का कथानक एक ऊंच-नीच, भेदभाव जैसे छुआछूत संबंधी समस्या को लेकर है.गोदान ,मंदिर,नमक का दारोगा ,ईदगाह आदि कहानियां आज भी लोग पढ़ते हैं ।
पुरोहिती-कर्मकांडी नगर काशी-बनारस से कुछ ही किलोमीटर दूर उनका गांव लमही था। बनारसी साड़ियों के लिए मशहूर बनारस में कभी कबीर जैसा बौद्धिक हुआ था, और बगल के सारनाथ में ढाई हज़ार वर्ष पूर्व बुद्ध ने अपने क्रान्तिकारी धर्म-दर्शन का पहला उद्घोष किया था; लेकिन प्रेमचंद के समय का बनारस पण्डे-पुरोहितों का नगर था – सुस्त, काहिल और विचारशून्य। प्रेमचंद इस विचारशून्यता को गहराई से समझ रहे थे। उनकी यही समझ उनके साहित्य का आधार है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसकी वाजिब समीक्षा अब तक हिंदी साहित्य में नहीं हुई है। हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के कहानीकार के रूप में प्रेमचंद बेमिसाल हैं। वे ऐसे हिन्दू और मुस्लिम पात्रों का निर्माण करते हैं जिनमें असाधारण धार्मिक सहिष्णुता होती है। "मंदिर और मस्जिद"(1925) में चौधरी इतरअली ऐसे ही उच्चवर्गीय जागीरदार पात्र हैं वे न तो मुसलमानों द्वारा हिन्दू मंदिर पर हमले को बरदाश्त करते हैं और न ही हिंदुओं द्वारा मस्जिद पर किए गए आक्रमण को। वे मानते हैं कि "किसी के दीन की तौहीन करने से बड़ा और कोई गुनाह नहीं है।" इसका मूल्य उन्हें अपने दामाद और स्वामिभक्त सेवक की मृत्यु के रूप में चुकाना पड़ता है।
"हिंसा परमो धर्म" सांप्रदायिक दरिंदगी का पर्दाफ़ाश और सद्भाव का उजागर करने वाली एक उल्लेखनीय कहानी है। इस कहानी का केन्द्रीय पात्र एक सीधा सादा मुसलमान है जो सेवाधर्म का पुजारी है। हिन्दू हो या मुसलमान, सबकी सेवा करना ही वह अपना एकमात्र कर्तव्य समझता है। उसके लिए हिन्दू और मुसलमान में कोई फ़र्क नहीं है। दूसरी ओर हिन्दू और इस्लाम के पक्के अनुयायी हैं, जो हिंसा को ही अपना परम धर्म समझते हैं। अपने इस मानवीय समझ के लिए जामिद को बहुत तकलीफ़ें झेलनी पड़ती हैं, पर वह अपना मानवीय धर्म नहीं छोड़ता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमचंद जी ने अपने अधिकांश कहानियों में राष्ट्रीय एकता और धार्मिक सद्भावना का चित्रण किया है।प्रेमचंद शोषण एवं सामंतवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ थे। उनकी कहानियों में दर्शाई गई समस्याएं समाज में आज भी हैं। मुंशी प्रेमचंद ने दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छुआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष असमानता, आदि सभी प्रमुख समस्याओं पर अपनी लेखनी चलाई। प्रेमचंद मानवतावादी और मार्क्सवादी उच्च विचारों के लेखक थे, जिन्होंने गांव गरीब के दु:ख- दर्द को उजागर किया। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से भारत के दलित एवं उपेक्षित वर्गों को वाणी प्रदान की।
प्रेमचंद वस्तुतः मानवतावादी साहित्यकार थे। वह शताब्दियों से पददलित, अपमानित और उपेक्षित कृषकों की आवाज थे। प्रेमचंद ने दो प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक उपन्यास लिखे। इनमें भारतीय जीवन की बहुमुखी समस्याएं चित्रित की गयी है। प्रेमचंद ने धार्मिक अंधविश्वासों के विरुद्ध भी खूब लिखा। वह हिंदी के प्रथम मौलिक एवं युग-परिवर्तक उपन्यासकार थे। प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य में आदर्श और यथार्थ का संगम है।
भ्रष्टाचार उस समय भी था और आज भी है। इसलिए प्रेमचंद की कहानियां व उपन्यासों में कही गई बातें आज भी प्रासंगिक हैं। वर्षों पूर्व उन्होंने इस बात का चित्रण कर लिया था जो आज हमारे जीवन व संस्कारों से जुड़े हुए हैं। प्रेमचंद किसानों व मजदूरों तथा लाचारों के कथाकार थे। प्रेमचंद अपनी हर कृति को इतने समर्पित भाव से रचते कि पात्र जीवंत होकर पाठक के ह्रदय में धड़कने लगते थे।
यहां तक कि पात्र यदि व्यथित हैं तो पाठक की पलक भी नम हो उठती। पात्र यदि किसी समस्या का शिकार है तब उसकी मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति इतनी प्रभावी होती है कि पाठक भी समाधान मिलने तक बेताबी का अनुभव करता है। मुंशी प्रेमचंद ने अपने जीवन में कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों की संख्या में लेख आदि की रचना की।
मुंशी प्रेमचंद जैसा न कोई हुआ और न ही शायद होगा। उन्होंने जातीय शोषण और अत्याचार को अपनी कहानियों में पिरोया है। कमजोर जाति की आवाज को प्रेमचंद ने अपनी कहानियो ,में बड़ी सहजता से चित्रण किया है। मुंशी प्रेमचंद क्रांतिकारी रचनाकर थे। वह समाज सुधारक और विचारक भी थे।
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