चाँद सी महबूबा हो मेरी... शरद पूर्णिमा पर चांद गीतों में।

 

        
चंदा रे, मेरे भैया से कहना, ओ मेरे भैय्या से कहना
बहना याद करे-२ ओ चँदा रे...
  तुझे सूरज कहूँ या चंदा
तुझे दीप कहूँ या तारा
मेरा नाम करेगा रोशन
जग में मेरा राज दुलारा...
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद .....
चांद जैसे मुखड़े
पे बिंदिया सितारा ......
मैंने पूछा चाँद से के
देखा है कही मेरा यार सा हसीं
चाँद ने कहा चाँदनी की
कसम नहीं नहीं नहीं.......
जाने कितने दिनों के बाद
गली में आज चाँद निकला .....
ये मुखड़ा चांद का टुकड़ा.....
चांदनी रात है तू मेरे साथ है
हो चांदनी रात है तू मेरे साथ है....
आधा है चंद्रमा रात आधी ......
चांद पर न जाने कितने गीत ,शायरी,नज़्म लिखे गए हैं।
साहित्य-संसार का शृंगार, संयोगियों का सुधासार, वियोगियो का विषागार, उपमाओं का भंडार एवं कल्पनाओं का आधार है। हमारे चंद्रमा का जन्म समुद्र से हुआ है। वह कुमुद-बांधव तथा रोहिणी-वल्लभ है। लक्ष्मी माता का सगा सहोदर होने से हम लोग उसे 'चंदा मामा' भी कहते हैं।    सोलह कलाओं के स्वामी  श्री कृष्ण गोपियों संग कदम्ब के पेंड़ के नीचे  शरद पूर्णिमा सोलह कलाओं से पूर्ण के चांदनी में महारास रचाते हैं। भोले शंकर के माथे पर भी चंद्रमा विराजमान होते हैं।
    चांदनी रात की बात ही तपते हृदय को शीतलता प्रदान करती है। ऐसी मान्यता है कि ‘शरद पूर्णिमा’ की रात को बिखरी हुई दूधिया चांदनी, सर्वाधिक शीतल, स्वास्थ्यवर्धक और आनंदप्रद होती है। शरद ऋतु की चांदनी को शरद पूर्णिमा की संज्ञा दी गई है।
महर्षि चरक के अनुसार रात्रि में चंद्रमा की शीतल चांदनी से शीतलता का प्रात: काल तथा अगस्तय-नक्षत्र के प्रभाव से पूरी तरह विष-मुक्त हुआ शरद ऋतु का स्वच्छ जल ‘हंसोदक’ के नाम से जाना जाता है। 

इसे स्नान करने, पीने आदि के लिए अमृत तुल्य कहा गया है। महाराज भर्तृहरि ने भोग सामग्री के साथ ‘चांदनी’ की गणना की है।  
भर्तृहरि लिखते हैं कि मनोहर गंध वाली पुष्प मालाएं, हवा, चंद्रमा की किरण, क्रीड़ा सरोवर, चंदन-धूलि, मंदिरा, मकल-नयनों वाली सुंदरियां, पारदर्शी महीन वस्त्र आदि भोग-सामग्रियां ‘पुण्यात्माओं’ को ही प्राप्ति होती है। 

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