अंधेर नगरी में दर्पण की दुकान ! - प्रसिद्ध यादव।
नगर में चारो तरफ अंधें ही अंधे थे। अंधों में इस बात की प्रतिस्पर्धा जरूर बनी रहती थी कि हम ज्यादा देखने वाले हैं। एक देखने वाले आदमी जब नगर का भ्रमण किया तो देखा कि यहां गज़ब की प्रतिस्पर्धा है, क्यों न यहां दर्पण की दुकान खोल दें और वो ऐसा ही किया।दर्पण बेचने वाले दावा करने लगा कि जो इस दर्पण को खरीदेगा वो ज्यादा देखेगा।अब दर्पण खरीदने के लिए अंधों में होड़ लग गई और जो भी खरीदे वो दर्पण की तारीफ़ करता।दर्पण बेचने वाले मालामाल हो गया और अंधें झूठी शान बखारता रहा।एक दिन दर्पण बेचने वाले से रहा नहीं गया और अंधों के सामने सच बताया कि न यह दर्पण किसी को दिखता है न उसके कोई काम का है।झूठी शान में वाहवाही बटोरी जा रही है।यही हाल ज्ञान के बिना अंधों का है। झूठी शान में अपने आप को एक दूसरे से अधिक समझदार समझ रहा है। इतना अंधा समय उसे कई सदियों में नही देखा जो आज देखने को मिल रहा है। अंधों के पीछे अंधों की लंबी कतार लगी हुई है और लोग इस कतार को बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं। कुपथ कुपथ पर चलने वाले मार्गदर्शक बना हुआ है।हिंसा को बढ़ावा देने वाला बुद्ध का उपासक बना हुआ है, नफरत फैलाने वाले शांति दूत और दूसरों के घरों में आग लगाने वाले घर बसाने वाले बने हुए हैं। बर्बादी की राह भविष्य लग रहा है तो इसे क्या कहें? चारो तरफ लगे हैं बर्बादियों के मेले रे !हम रह गए अकेले।
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