धर्म ! अब मानवता से ऊपर हो गया है ( कविता ) -प्रसिद्ध यादव।
धर्म ! अब मानवता से ऊपर हो गया है
राष्ट्र ,विधान ,भूख,मुफलिसी से भी ।
धर्म देखकर प्यार ,नफरत होता है।
पाखंड ऐसा घर कर गया कि
घर - घर हो गया है ।
धर्म में छुप जाता है सब कुकर्म ।
पहले धर्म से सत्य चित ,निर्मल मन होता
सत्य मार्ग पर चलता ,नैतिक मूल्य होता था
संवेदना थी ,हृदयस्पर्शी मनमोहक होता था
विनम्रता ,शीलता ,दयावान, निष्ठावान होता था
प्रेम उमड़ता ,खुशियां बंटती ,सुख - दुख में साथ होते
अब निष्ठुर ,क्रूर ,निर्लज्ज, विष फैलाने वाले हुए
कर्मयोगी भूखे मरे, परजीवी खाये मलाई
अंधों को सूझे नहीं, दिन रात करे दुहाई
न कबीर की साखी पढ़ी ,न रहीम की प्रेम धागा
न रैदास की कुर्बानियां ,न अम्बेडकर का अपमान
न एकलव्य का अंगूठा, न शम्बूक की हत्या
तरस आती है सर पर चरणपादुका ढोने वाले पर
तलवे सहलाने वाले पर ,मानसिक गुलामी पर ।
होश आएंगे चमन उजड़ने के बाद
फिर से पालकी ढोने पर
जयजयकार करने पर ,कोड़े खाने पर
तब तक हो जयजयकार
गूंजे धरती आसमान
भले न हों एक समान ।
धर्म !
अब मानवता से ऊपर हो गया है
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