यहां वसन्ती की राज चलती है बाबू !

  


अब तेरे पगड़ी का क्या होगा  बाबा ?

 इतना सन्नाटा क्यों है भाई !

मैं वसन्ती हूँ ! देख कर काहे मन कुलकुला रहा है।हम अपने आप में मस्त रहते हैं।मन मस्त हुआ फिर क्या बोलें ? मेरे पीछे दुनिया दीवानी है।फिर ये जय और बीरू किस खेत की मूली है।ऐसे को ठेंगे पर नचा रही हूँ।कौन कहता है कि लोकतंत्र की ताकत जनता में निहित है ,कुछ नहीं सब मुँह तक़वा है।दो दशकों से अपने पीछे ठाकुर,गब्बर जय बीरू को नचा रही हूं।वो शोले वाली वसन्ती नहीं हूं कि किसी के बंदूक के नोख पर नाचूँ ।यहां अपनी अदाओं से सब को नचा रही हूं। वसन्ती की बातें सुनकर झा जी बोले - असमन्स दूर करो प्रिय ! वसन्ती बोली - दिमाग नहीं है तो काहे प्रोफेसर बने हुए हैं।अभी तक असमंजस ही लग रहा है। झा जी की बोलती बंद है।सब गुड़ गोबर हो गया।वसन्ती को सहज रूप से सहेज को कोई भी रख सकता है लेकिन असहजता बर्दाश्त नहीं होता है।  अब पगड़ी वाले को अपनी पगड़ी की सौगंध याद आ रही है।जान जाए पर पगड़ी न खुले ।यहां तो पगड़ी की सत्यानाश होने वाला है। बिना सोचे पगड़ी बांधने का नतीजा अब भुक्तो !  जहाँ मेरे पैर पड़े वही हरियाली है।मैं पारस हूँ।मेरे स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है।मैं वो ऑक्सीजन हूँ कि मुर्दे भी जिंदा हो जाता है ,मेरे चरण रज से पत्थर उद्धार हो रही है।मेरी माया देव भी नहीं जान पाए ,आदमी का क्या बिसात है! मैं योग माया हूँ, मन वांछित फल देने वाली हूँ।सब मुझसे है, मुझमें ही है, मैं स्वतंत्र हूँ।मैं चमत्कार हूँ ,विज्ञान, कला ,सोलहो श्रृंगार हूँ।मुझसे ईर्ष्या मत करो, मुझे भला बुरा मत कहो।मेरी बराबरी करो,मेरे जैसा बन कर दिखाओ। अभी मेरी जवानी बाकी है और नख़रे देखना,इतिहास बनाउंगी । सर पटकेंगे लोग ,कुछ पगलायेंगे।कुछ सन्यासी बन गए कुछ लाइन में है । 

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