अच्छा हुआ डरपोक का साथ छूटा !
डर जो न करा दे ! जदयू के जितने वितीय सहायक थे,उन सभी पर केंद्र की तोता नज़र गड़ा दिया था।चाहे आरा के जदयू एमएलसी राधाचरण सेठ हो या बिक्रम के गब्बू सिंह। सबके आर्थिक साम्राज्य ध्वस्त कर दिया जा रहा था, उधर मुजफ्फरपुर में भी इनके एक पूर्व मंत्री सुबोध राय पर नकेल कस दिया गया था।जान बचे तो लाख उपाय।यही कारण है कि नीतीश ने भाजपा के सामने आत्मसमर्पण किया। हिम्मत नहीं है तो राजनीति भी नहीं है। जो डर गया ,समझो वो मर गया।नीतीश ने अभी तक गठबंधन तोड़ने का राजद पर कोई आरोप नहीं लगा सके हैं। कुर्सी के लोभ की पराकाष्ठा है और यह राजनीति में कैंसर की तरह प्रयोग है। किस मुँह से जनता के बीच वोट मांगने जाएंगे। तेजस्वी यादव को भी अब मुर्दे लोगों की चिंता छोड़ जनता के बीच होना चाहिए। हर दिन किसी न किसी न किसी गांवों में बिताना चाहिए। सब चालीस लोकसभा सीटों पर ग्रुप बनाकर पदयात्रा करना चाहिए और अपनी बातों को रखना चाहिए। हारे थके लोग से 17 महीने में बिहार में बेमिसाल काम किये हैं।यह जगजाहिर है। राजद को खोने के लिए कुछ नहीं, पाने के लिए सब कुछ है। बिहार में हर बार सरकार नीतीश की होती है बदलती है तो सिर्फ विपक्ष। लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए अदम्य साहस की जरूरत होती है।डरपोक, कायर के साथ रहकर या सेनापति बनाकर जीती हुई बाजी हार जाती है और इसके उलट सेनापति साहसी हो तो हारी हुई बाजी जीती जा सकती है।जिसके बातों का भरोसा नहीं, वो मुर्दे हैं, कायर,व डरपोक हैं।इतिहास इसका गवाह है कि कायरों का हश्र क्या होता है और इनका भी होना तय है।
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