ज्ञानेश्वर की डायरी बहुजनों को खलनायक बताने की कहानी है!
गौर से इसकी डायरी की कहानियों के एपिसोड को देखेंगे तो इसकी डायरी में अभिजात्य वर्ग की दबंगई की कहानी नहीं मिलती है। उस पुलिस अधिकारियों की बहादुरी बढ़ चढ़ कर बताता है कि मानो असली हीरो देश के वही है। आखिर दशकों पूर्व इन कहानियों को तोड़ मरोड़कर ,मिर्च मसाला डालकर परोसने का मकसद क्या है? मकसद एक ही है कि बहुजन अपराधी प्रवृत्ति के होते हैं और खुद बड़े बुद्धिमान। पुलिस अधिकारियों ने कैसे मानवाधिकार का उल्लंघन कर संविधान की धज्जियां उड़ाई थी ? यह जगजाहिर है। भले बहुजनों के खिलाफ मुहिम चलाकर महीने में लाखों कमाता है लेकिन पत्रकारिता के नाम पर घोर पक्षपात है। मैंने इसके फब पर इसी तरह का कॉमेंट किया था तो तिलमिला गया था और कोई जवाब नहीं दिया था।बहुजनों को इसकी चिकनी चुपड़ी डायरी को बायकॉट करना चाहिए। इसकी डायरी में केवल नकारात्मक असर होता है, जबकि सकारात्मक ऊर्जा समाज बदलता है। जिस पुलिस अधिकारी की वीरता कहते नहीं अघाते है, उसकी हेकड़ी शेरे बिहार राम लखन सिंह यादव ने तोड़ दिया था। एक जेल में बन्द कैदी को बिना बेल के बाहर जाने का फरमान मौखिक निकलवा कर जेल से भागने का मुठभेड़ की साजिश रची थी लेकिन वो कैदी उस पुलिस अधिकारी की मंशा भांप लिया और जेल से बाहर नहीं निकला।इसकी खबर रामलखन सिंह यादव को पड़ी तो उस वक्त के बांकीपुर जेल के दरवाजे में लात मारकर उस कैदी से मिले तब वो शांत हुआ।उस वक्त उस अधिकारी की घिग्घी बन्ध गई थी।आगे चलकर वही कैदी दानापुर के दो दो बार विधायक बने और उनकी पत्नी भी। इस घटना को उसकी डायरी में हकीकत से दूर मनगढ़ंत कहानी गढ़ी गयी है, जबकि असली कहानी यही है।पत्रकारिता करनी है तो सभी पहलुओं को देखने का नजरिया एक समान होनी चाहिए।अन्यथा जगहंसाई से ज्यादा कुछ नहीं है।
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