किसानों का दगा दे रहा सावन ! मेघा रे !मेघा रे !...
सावन में धूल उड़ रहे हैं, खेतों में दरार फट गया है। धान के बिचड़े सुख रहे हैं।बोरिंग ट्यूबवेल जवाब दे रहा है। किसान माथे पर हाथ रखकर अपनी किस्मत को कोस रहे हैं। खेतिहर मजदूर हांफ रहे हैं, बाकी लोग मस्ती में हैं। किसानों का दर्द छलक रहा है, कोई देखने वाला नहीं है। सावन महीना मनभावन, हरियाली का होता था लेकिन समय के साथ सब बदल गया। संसद व बिहार विधानमंडल के सत्र चालू हैं लेकिन वहां भी किसानों की कोई आवाज नहीं उठ रही है। हाल ही में संसद में बजट पेश हुए। बड़े बड़े अर्थशास्त्री बजट को विश्लेषण कर तारीफ़ के पुल बांधे, लेकिन किसानों की फसलों की न्यूनतम मूल्य पर कोई कुछ नहीं लिखा।आज यही कारण है कि अच्छे अच्छे किसान खेतीबाड़ी छोड़ किसी दफ्तरों में जाकर सुरक्षा गार्ड का काम कर रहे हैं, निजी वाहन चला रहे हैं, कम्पाउंडर बने हुए हैं, फुटपाथ पर दुकान चला रहे हैं।यही हाल खेतिहर मजदूर की है।वे बिहार से पलायन कर दूसरे राज्यों में काम कर रहे हैं। अगर किसानों के दिन दशा सुधारने की सरकार की नीयत होती तो ये दिन नहीं देखना पड़ता।सरकार सुखाड़ पर अविलंब कोई उपाय करें ताकि किसान बेमौत मरने से बचें।
पड़े हैं नफ़रत के बीच दिल में बरस रहा है लहू का सावन
हरी-भरी हैं सरों की फ़सलें बदन पे ज़ख़्मों के गुल खिले हैं
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