गुंडई की ताकत से इज्जत ,दौलत ,ओहदे मिलते हैं !
चंद्रकिशोर जायसवाल के कथा साहित्य, विशेष रूप से, उपन्यासों में सामाजिक मूल्यों और रिश्तों में आ रहे परिवर्तनों की गहरी पड़ताल की गई है। चिरंजीव उपन्यास में नायक शशांक इन्हीं कष्टों एवं प्रताड़नाओं की आशंका से आजीवन कुँवारा रहने का विचार मन में बिठा लेता है। उसका मानना है कि, ‘है कोई ऐसा बेटी वाला जिसकी पगड़ी न उतरी हो? दर-दर की ठोकरें खाओ, बेटी का ‘शेर बाप’ होकर भी बेटा के ‘बकरा बाप’ की दुतकारें सुनो और तब भी कातर-कंपित स्वर में अनुनय-विनय करते जाओ, ‘मेरा उद्धार कीजिए, मेरी बेटी का उद्धार कर दीजिए।’
चिरंजीव का शशांक आज की पत्नियों के स्वभाव और गुणों-अवगुणों को लेकर भी भयभीत और आशंकित रहता है। उसका मानना है कि अब पहले जैसा समय नहीं रहा और समाज के कायदे-कानून और परंपराएँ भी दरकती जा रही हैं। ‘पहले का जमाना कुछ और था। औरतें सती सावित्री होती थीं। पति अंधा हो, बहरा हो, लूला हो, लँगड़ा हो, रोगी हो, अपाहिज हो, पत्नी का एकमात्र धर्म था उनकी सेवा, एकमात्र लक्ष्य था उनका सुख।’ स्त्रियाँ अपने पति के लिये हर तरह का त्याग करती थीं। ‘औरत अपने पति पर अपनी हर दौलत न्यौछावर कर देती, अपनी बाकी बची उम्र तक। मिट्टी पत्थर के भगवानों से कम पूजा नहीं होती थी उसकी। औरत की सारी प्रार्थनाएँ और व्रत-उपवास पति के कल्याण के लिए होते थे।’
शशांक ने देखा था कि सामाजिक मूल्यों में लगातार गिरावट आ रही है और रिश्तों की मर्यादाएं और लिहाज भी कमजोर होता जा रहा है। ‘जमाना अचानक बहुत तेजी से खराब हुआ है। आज की बीवी पति की जेब टटोलती है, पति का जिस्म निचोड़कर एक-एक बूँद सुख गाड़ लेती है अपने लिए, आँख दिखाती है बात-बात पर, और जरूरत-बेजरूरत सड़क पर निकलकर हंगामा मचाने की धमकी भी देने से बाज नहीं आती। उँगली पर नाचता है बेचारा पति, पर इतने पर भी खैर कहाँ उस बेचारे की। कभी-कभी अचानक खबर फूटती है, ‘लो सुनो, उसकी बीवी नौकर के साथ भाग गई।’
समय ने ऐसी करवट ली है कि अब लोग महापुरुषों के कथनों/उपदेशों पर भी तत्काल भरोसा नहीं करते हैं और अपने अनुभवों और मान्यताओं की कसौटी पर अच्छी तरह से कसने के बाद ही निर्णय लेते हैं। चिरंजीव का शशांक अपनी पत्नी दिव्या से कहता है, ‘मैं तो अब महापुरुषों के कथन को भी जाँचकर देख लेता हूँ। उनकी बात भी बगैर सोचे-समझे नहीं मान लेता। हर आदमी अपने लिए, महापुरुष है, हर महापुरुष दूसरों के लिए बच्चा है। जीवन की गाड़ी में जो बैल जुटे हैं, उन्हें महापुरुषों की शक्तियों की टिटकारी से नहीं हाँका जा सकता, उन्हें जमाना देखे हुए गँवई-गँवार की अनगढ़ उक्तियों की छड़ी सटकार से ही आगे बढ़ना होता है’
आज के युग में समाज में अपराधियों और गुंडों का बहिष्कार नहीं किया जा रहा है बल्कि उनकी पूछ बढ़ गई है और समाज में उन्हें नायक का दर्जा दिया जा रहा है। चिरंजीव उपन्यास में शशांक अपनी पत्नी दिव्या से कहता है, ‘रहती हो चहारदीवारी में बंद, तो जानोगी कैसे कि दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई। किसी जमाने में सुन लिया कि गुंडा होना बुरी बात है, और उस बात को आज तक गिरह बाँधकर बैठी हुई है। कान खोलकर सुन लो कि आज गुंडों के पास जो इज्जत है, दौलत है, वह भले आदमियों के पास नहीं। आज जो लोग इज्जतदार कहलाते हैं, दौलतमंद बने हुए हैं, बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं, उन सबके पीछे गुंडई की ताकत है।’
स्रोत वेव।
Comments
Post a Comment